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संशयतिमिरप्रदीप ।
अर्थात्-पद्मासन से बैठकर नासिका के अग्रमाग में नयनों को लगा कर और मौन सहित वस्त्र से मुख को ढककर जिन भगवान् की पूजन करे।
श्रीयशस्तिलक में भगवत्सोमदेव भी यों ही लिखते हैं किःउदङ्मुखं स्वयं तिष्ठेत्पाङ्मुखं स्थापयेजिनम् । पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यपी वाचंयमक्रियः ॥ अर्थात्-यदि जिन भगवान् को पूर्वमुख स्थापित किये हो तो, पूजक पुरुष को उत्तरदिशा की ओर मुख करके पूजन करनी चाहिये । पूजन के समय मौनी रहने की आज्ञा है। श्रीवामदेव महर्षि भावसंग्रह में भी इसी तरह लिखः हैं:पुण्णस्स कारणं फुड पढमं ता होय देवपूजाय । कायव्वा भत्तिए सावयवग्गेण परमाय ।। पामुयजलेण व्हाइय णिव्वसियवछायगंपितं ठाणे । हारेयावहं च सोहिय उपविसर पडिमआसणं ॥
अर्थात्-श्रावकों के लिये सब से पहला पुण्य का कारण जिन भगवान् की पूजन करना कहा है । इसलिये श्रावकों को भक्ति पूर्वक पूजन करनी चाहिये । वह पूजन, पहले ही पवित्र जल से स्नान करके और वस्त्र को पहर कर पद्मासन से करनी चाहिये। इसी तरह पंडित वखतावर मल जी का भी अनुवाद है:श्रावगवर्गहि जानि प्रथम सुकारण पुण्य को। जिनपूजा सुखदानि भक्तियुक्त करिवो कह्यौ ।
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