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संशयतिमिरप्रदीप।
इत्यादि । इसी तरह का श्रद्धान है और इसी श्रद्धान के अनुसार कार्य में भी परिणत होते प्रायः देखे जाते हैं । हमने बहुत से अध्यात्म मण्डली के विद्वानों को देख्ने हैं परन्तु उनमें ऐसे बहुत कम देख्ने हैं जिन्हें जिन भगवान की पूजनादि विधियों में वास्तविक गृहस्थ धर्मानुसार प्रेमहो । उनलोगों का नित्यकर्म गृहस्थ धर्म की लज्जा से कहिये अथवा लोग प्रवृति से केवल भगवान् की प्रतिमा का दर्शन तथा श्रावकाचारादि विषयों के धर्म ग्रन्थोको छोड़कर केवल अध्यात्मशास्त्रों का स्वाध्याय करना रहगया है यही नहिं किन्तु उनलोगो का उपदेश भी होता है तो वह इसी विषय को लिये होता है। ऐसे लोगों के मुहँ से कभी किसी ने गार्हस्थ्य धर्मका उपदेश नहीं सुनाहोगा।समा वगेरह में शास्त्र भी होंगे तो इसी विषय के। श्रोतागण चाहें अल्पक्ष हो चाहे कुछ जाननेवाले, चाहे गृहस्थ धर्म को किसी अंश में जानते हो अथवा अनभिष, चाहे बालक हो अथवा वृद्ध सभी को अध्यात्म सम्बन्धी, ग्रन्थों का उपदेश मिलेगा जिन में प्रायः मुनिधर्म का वर्णन होने से व्यवहार धर्म से उपेक्षा की गई है। आज जैनियों में ग्रहस्थ धर्मका जाननेवाला एक भी क्यों नहीं देखाजाता तथा किसी अंश में भी श्रावक धर्म का पालन करने वाला क्यों नहीं देखाजाता? इसका कारण बालकपन से अध्यात्मग्रन्थों की शिक्षा देने के सिवाय मौर कुछभी नहीं कह सकता। इस विषय में अब जरा महर्षियों का भी मत सुनिये।
श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं किवारचर्या च सूर्यपतिमा त्रिकालयोगनियमश्च । सिद्धान्त रहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देशविरतानाम् ॥
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