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संशयतिमिरप्रदीप ।
ग्रिके सन्ताप से दुष्प्रवेश और विषयादि सम्बन्धि खोटी बासना रूप गाडान्धकार से जिस में मनुष्यों क नेत्रीपर एक तरह का परदा पड़ जाता है वैसे गृहाश्रम में हजारों प्रकार की चिन्ताज्वर से आत्मा को कुटिल करने वाले गृहस्थों को ध्यान की सिद्धि हो जाना आश्चर्य जनक है आश्चर्य जनक ही नहीं किन्तु अत्यन्त असंभव कहना चाहिये। संसारी लोग अनकतरह के विषयादि जन्य आरंभा से हित तथा आहत के बिचार से रहित अपनी आत्मा को व्याप्त करते हैं जिस तरह मकड़ी अपने को तन्तुओ से व्याप्त करती है । जिन लोगों के पास संयम अर्थात् मुनिव्रत का धारण करना रूप शास्त्र नहीं है वे लोग सो जन्म पर्यन्त भो आत्मस्वरूप के घात करने वाले रागादि शत्रुओं की सेना को जोतने के लिये अपनी सामर्थ्य कभी नहीं प्रगट कर सकते। जिस प्रवल काल की प्रचण्ड वायु से बडे २ उन्नत पर्वत क्षणमात्र म तीन तेरह हो जाते हैं तो स्त्रियों के सम्वन्ध से स्वभाविक चंचल मन नहीं चलेगा क्या? राजर्षि शुभ चन्द्र इस बात को जोर के साथम कहते हैं कि चाहे किसी काल में आकाश के पुष्प तथा गधे के सांग यदि संभव भी मान लिये जाव तो भले हो परन्तु गृहस्था को ध्यान की सिद्धि किसी देश में तथा किसी काल में भी ठीक नहीं मान सकते।
पाठक महाशय ! देखी न ? महाराज शुभ चन्द्रजी की प्रतिक्षा । क्या कभी आप इसके विरुद्ध स्वप्न में भी कल्पना कर सकते हैं कि गृहस्थों को ध्यान की सिद्धि होगी ? नाहं नहिं । और यह बात है भी ठीक क्योंकि गृहस्था को जब निरन्तर अपने गृह जंजालों से ही छुटकारा नहीं मिलता फिर अत्यन्त दुष्कर ध्यान सिद्धि उनके भाग्य में कहा से लिखी मिलेगा?
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