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संशयतिमिरप्रदीप।
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उत्तर-इसका यह अर्थ नहीं कहा जा सकता कि जो ग्रन्थ
गृहस्थों के उपयोग नहीं आवे तो वे किसी के उपयोग में नहीं आसकते । आचार्यों ने सहस्रो ग्रन्थ मुनिधर्म सम्बन्ध के भी निर्मापित किये हैं परन्तु वे हमारे उपयोग में किसी तरह नहीं आसकते तो क्या इससे यह कहा जा सकेगा कि वे अनुपयोगी है ? इसका यह अर्थ नहीं है किन्तु यो समझना चाहिये कि मुनिधर्म के ग्रन्थ मुनियों के उपयोगी होते हैं गृहस्थ धर्म के ग्रन्थ गृहस्थी के उपयोगी है। इसीलिये आचार्यों का यह कहना बहुत योग्य और आदरणीय है। कहने का तात्पर्य यह है कि मुनियों को अपने आचार विचार के ग्रन्थों के अनुसार चलने का उपदेश है और गृहस्थों को गृहस्थ धर्म के अनुसार। इस तरह से इस विषय का शास्त्रों में उल्लेख है। वह आप लोगों के सन्मुख उपस्थित है। जैन जाति में इस विषय की कितनी अवश्यक्ता है यह बात आसानी से मालूम हो सकती है । केवल जाति की दशा पर तथा अपने अनुकूल गार्हस्थ्य धर्म पर लक्ष्य देना चाहिये। हमारी अवनति का प्रधान कारण हमलोगा से गृहस्थ धर्म का ठीक तरह पालन नहीं होना है। अर्थात् योकहो कि गार्हस्थ्य धर्म का आज हम लोगों में नाम निशान तक नहीं पाया जाता । लोग अपने धर्म को छोड़ कर ऊंचे दरजे पर चढ़ने के उपायों में लगे हुवे हैं अर्थात् यो कहो कि सोपान के विना अकाश की सीमा पार करना चाहते हैं परन्तु यह आशा उनकी कहां तक सिद्धिता
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