________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संशतिमिरप्रदीप |
१३३
हिये ऐसी अनेक क्रियायें जैन जाति में प्रचलित हो रही है। जिन से आज जैन जातिइस दशा को पहुँच चुकी है और दिनों दिन अधस्तल में समारही है उनके दूर करने के लिये किसी मैं चैतन्यता जाग्रत नहीं होती । यही कारण है कि आज जैन जाति में एक भी सुसंस्कारों से संस्कृत नहीं देखा जाता, एक भी पूर्ण विद्वान् नहीं देखा जाता, एक भी तेजस्वी नहीं देखा जाता । उन उत्कट मिथ्यात्व की कारण भूत आर्षविधि रहित विवा - हादि क्रियाओं का तो काला मुँह करने के लिये कोई प्रयत्न शील नहीं होता और प्राचीन क्रियाओं की यह दशा ! कहिये इसे कोन जाति के अवनति का कारण नहीं कहेगा ?
पाठक महाशय ! महात्मा महर्षियों की कार्य कुशलता पर जरा बिचार करिये उन्हें क्या विशेष लाभ हो सकता था जो वे मन्त्र तन्त्रादि विषय सम्बन्धी ग्रन्थों को लिख कर अपने अमूल्य समय को तपश्चरणादिकों की ओर से खींचते ? उन्हें पुनः संसार के वास को स्ववास बनाने की अभिलाषाथी क्या ? नहिं नहिं ! यह जितना उन लोगों का प्रयास है वह केवल यू
थों के कल्याण के लिये । इसे एक तरह से उन लोगों का अनुग्रह कहना चाहिये । परन्तु इसके साथही जब हम अपनी प्रवृत्ति पर ध्यान देते हैं तो हृदय शोकानल से ज्वलित होने लगता है । खेद ! कहां यह नीति की श्रुति और कहाँ हमारी कृतज्ञता:
महतां हि परोपकारिता सहजा नाद्यतनी मनागपि ।
अस्तु | इसे काल चक्र की गति ही कहनी चाहिये। हमारा
For Private And Personal Use Only