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संशयतिमिरप्रदीप।
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नहीं इसका समाधान ठीक तरह “पञ्चामृताभिषेक"तथा "पुष्प पूजन" सम्बन्धी लेखों में कर आये हैं उन्हें निष्पक्ष बुद्धि से देखना चाहिये । इतः पर भी यदि सन्देह बना रहे तो उसके लिये नीति कारने एक श्लोक लिखा है:अज्ञः मुखमाराध्यः मुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । शानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रञ्जयति ।। हम यह कब कहते हैं कि कोई हमारे कथनानुसार अपनी प्रवृत्ति को करें परन्तु इसी के साथ यह कहना भी अनुचित नहीं कहा जा सकेगा कि जब हमारा कहना प्राचीन मुनियों के अनुसार है फिर यहकहने का अवसर नहीं रहेगा कि इसे प्रमाण कहेंगे और इसे नहीं । यदि हमारा उन लोगों से विरुद्ध हो तो उसे फौरन निकाल डालो परन्तु व्यर्थ ही झूठी कल्पना करना अनुचित है। यदि आचार्यों के कथन को न देख कर हरेक बचन प्रमाण मानलिये जावे तो लोगों ने तो यहां तक भाषा शास्त्रों में मनमानी हांक दी है कि "पार्श्वनाथस्वामी के मस्तक पर फण नहीं होने चाहिये। यह अनुचित है क्योंकि केवल ज्ञान के समय में फण नहीं थे, इत्यादि । अस्तु, रहे ! परन्तु महर्षियों की यह आशा नहीं है। प्रतिमाओं पर फण रहना चाहिये इस बात को समन्तभद्रादि प्रायः सभी महामुनियों ने स्वयंभू स्तोत्रादि में अनुमोदन किया है फिर कहो भाषा ग्रन्थकारों की बात को माने अथवा महर्षियों की इस पर पाठकों को पूर्ण विचार करना चाहिये।
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