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संशयतिमिरप्रदीप ।
धर्मामृत श्रावकाचार मैःत्रिकालयोगे नियमो वीरचर्या च सर्वया । सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥
अर्थात-ग्रहस्थोंको दिन में प्रतिमायोग से तपादि, वीरचर्या से भोजन वृत्ति तथा सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययनादि नहीं करना चाहिये। भगवानिन्द्रनन्दि स्वामी तो यहांतक कहते हैं किःआयकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरुतः सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ॥ अर्थात-आर्यका गृहस्थ और थोड़ी बुद्धि वाले शिष्यों के आगे सिद्धान्ताचार सम्बन्धी ग्रन्थों को याचना भी योग्य नहीं है उनका अध्ययन तो दूर रहै । इत्यादि शतशः ग्रन्थों में इसी प्रकार वर्णन देखा जाता है। अब इसबात पर हमारे बुद्धिमान् पाठक ही विचार करेंकि आचार्यों ने कुछ न कुछ हानि तो अवश्य देखी होगी जबही गृहस्थी को सिद्धान्त विषय की पुस्तकों के अध्ययनादि का निषेध किया है। मेरी समझ के अनुसार इससे बड़ी और क्या हानि कही जा सकेगी कि जिनके दिन रात अध्ययनादिक से गृहस्थ धर्म समूल से ही चला जाता है। उसकी वासना भी उन लोगा के दिल में नहिं रहती। प्रश्न--यह कहना बहुत असंगत है यदि ऐसेही तुम्हारे कथना.
नुसार मान लिया जाय ता यह तोकहो कि ये ग्रन्थ फिर किसके उपयोग में आवंगे?
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