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संशयतिमिरप्रदीप ।
निरन्तरा नळदाहदुर्गमे कुवासनाध्वान्तविल्लुप्तलोचने। अनेकचिन्ताज्वरजिहितात्मनां नृणां गृहे नात्माहितं प्रसिध्यति ॥ हिताहितविमृतात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेद्गृही। अनेकारंभजैः पापैः कोशकारकृमिर्यथा ॥ जेतुं जन्मशेतनापि रागाधरिपताकिनी । विनासंयमशास्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ।। प्रमण्डपवनः प्रायश्चाल्यते यत्र भूभृतः । तत्राऽऽङ्गनादिभिः स्वान्तं निसर्गतरलं न किं ॥ खपुष्पमथवाशृङ्ग खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेपि ध्यानसिदिहाश्रमे ॥ अर्थात् अनेक तरह की आकुलतादिको से व्याप्त और अत्यन्त निन्दित गृहवास में बड़े बड़े बुद्धिमान लोग प्रमाद के जीतने को समर्थ नहीं होते हैं इसीकारण गृहस्थ लोग अपने चंचल मन को वश करने में निःशक्त कहे जाते हैं। यही कारण है कि इस संसार के सन्ताप से पीडित अपने आत्मा की शान्ति के लिये उत्तम पुरुष गृहस्थिति को तिलाञ्जली देते हैं । इसी से कहते है कि जो लोग हर समय अनेक तरह की आपत्तियों से घिरे हुवे रहते हैं तथा खोटी आशा रूप पिशाच से पीडित हैं उन्हें अङ्गनाओ के लोचन रूप चारों से भरे हुवे गृहाश्रम में अपने आत्महित की सिद्धि की नहीं होती । निरन्तर दुःखा.
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