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संशयतिमिरप्रदीप ।
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सिद्धान्ताध्ययन
जिस विषय को लिखने का हम विचार करते हैं वह विषय हमारे पाठकों को आश्चय का कारण जान पड़ेगा ऐसा हमारा आत्मा साक्षी देता है। इस विषय पर आधुनिक विद्वानों का बिल्कुल लक्ष्य नहीं है । खैर ? आधुनिक विद्वानों को जाने दीजिये सो पचास वर्ष पहिले के विद्वानों का भी इस विषय पर औदासीन्य भाव देखा जाता है । इसके सिद्ध करने के लिये उन विद्वानों के बनाये हुवे भाषा ग्रन्थों का ही स्वरूप ठीक कहा जासकेगा । उन लोगों ने सैकड़ों संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों की भाषा बना डाली परन्तु किसी विद्वान ने अपने बनाये हुवे ग्रन्थों में इस विषय का आन्दोलन नहीं किया इसका कारण हम उनकी उपेक्षा बुद्धि को छोड़कर और क्या कह सकते हैं। एक उपेक्षा तो वह होती है जैसे अन्यमतियों की पुस्तकों को देखने के लिये दिल गवाही नहीं देता इसलिये उनका पठन पाठन रुचिकर नहीं होता । दूसरी उपेक्षा जैन शास्त्रों के विषय में कह सकते है इसका कारण यह कहा जा सकता है कि जिन विषयों में उनका मत अभिमत नहींथाइसी कारण उन विषयों के उपर लक्ष नहीं दिया है। यह प्रकरण अन्यमतियों के शास्त्रों का तोनहीं है इसलिये यही कहा जा सकेगा कि उक्त विषय में उन विद्वानों को अभिमत नहीं था । इस का कारण क्या है यह में नहीं कह सकता इसे हमारे विचार शील पाठक स्वयं अनुभव में ले आवे।
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