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संशय तिमिरप्रदीप |
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परन्तु आज तो राजर्षि के कथन विरुद्ध अपनी जाति में अनुष्ठानों का उपक्रम देखते हैं कहिये अब हम यह कैसे न कहें कि यह हमारा पूर्ण नाश का कारण तथा दोभाय नहीं है | कुन्दकुन्दाचार्य रयणसारमें कहते हैं कि
दाणं पूजामुक्खं सावध असावगो तेण । विण झाणझयणमुक्खं जइ धम्मं तं विणा सोवि ॥
अर्थात् गृहस्थों का दान पूजनादिकों को छोड़ कर और कोई प्रधान धर्म नहीं है । इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि गृहस्थों को अपने दान पूजनादिकों मैही निरत रहना चाहिये । उपदेश तो यह था परन्तु कालके परिवर्तन को देखिये कि ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे जिन्हें गृहस्थ धर्म पर गाढ़ श्रद्धा और ऐसे बहुत देखेने में आवेंगे जिनका यह श्रद्धान है कि एक तरह से जिन भगवान की पूजन प्रतिष्ठादिक भी शुभ राग के कारण होने से हेय हैं अर्थात् यो कहना चाहिये कि जिस तरह एक काराग्रह ऐसा है कि जिस में निरन्तर दुःख सहन करने पड़ते हैं और एक ऐसा है कि जिस में सुखोंका अभिनिवेश है परन्तु प्रतिबंध की अपेक्षा दोनोंको काराग्रह कहना पड़ेगाही यही अवस्था शुभराग तथा अशुभ रागकी समझनी चाहिये। एक तो पापकी निवृतिका कारण होने से स्वर्गादिकों के सुखाकी कारण है। एक में पापकी प्राचुयता होने से नरकादिकों की कारण है परन्तु कही जायँगी दोनों रागही । और रागही आत्मलब्धि केलिये प्रतिबन्ध स्वरूप है ।
इसलिये निश्चय की अपेक्षा दोनों त्याज्य कही जायेंगी
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