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संशयतिमिरप्रदीप |
कर्म है । इसेही जैनाचार्य श्राद्ध कहते हैं। इसलिये ब्राह्मण लोगों के कथनानुसार श्राद्ध को वेशक मिथ्यात्व का कारण मानना चाहिये । किन्तु जैन शास्त्रों के अनुसार तो इस विषय की तरफ प्रवृत्ति करनी चाहिये। और साथ ही जो लोग इसके नाम से विमुख हो रहे हैं उन्हें जैन शास्त्रों का आशय समझा कर सुमार्ग पर लाने का प्रयत्न करते रहना भी योग्य है
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चमन और तर्पण.
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आचमन और तर्पण का काम प्रायः सन्ध्या बन्दन तथा जिन पूजनादिकों में पड़ता रहता है। इन विधियां के अनुदान से शरीर शुद्धि होती है ऐसा जिनसंहिता तथा त्रिवर्णाचार आदि ग्रन्थों में लिखा हुआ है। जिस तरह श्राद्ध शब्द विवादास्पद है उसी तरह ये भी शब्द के नाम मात्र से विवादास्पद माने जाते हैं। परन्तु शास्त्रों में जगह २ आचमनादिकों का वर्णन देखा जाता है। ये आचमनादि जितनी क्रियायें शास्त्रों में लिखी हुई हैं वे सब केवल वहिः शुद्धि के लिये लिखी गई हैं। क्योंकि जबतक वहिः शुद्धि नहीं की जाती है तब तक गृहस्थ देव पूजनादि सत्कार्यों का अधिकारी नहीं हो सकता । यही कारण है कि आज जैनियों में दन्तधावनादिकों का प्रचार बिल्कुल उठजाने से लोग यहां तक उद्गार निकालने लगे हैं कि " जैनी लोग बड़ी मलीनता से रहते हैं जो कभी उन्हें तुच्छ लकड़ी भी दतोन के लिये नहीं मिलती " इत्यादि । देखो ! इन छोटी २ बातों का ही आज प्रचार उठ जाने से कितने कलंक के
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