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संशयतिमिरप्रदीप।
नरक, स्वर्ग मोक्ष आदि की जिस तरह हम कल्पना करते हैं उसी तरह वे भी करते हैं परन्तु इन सब उपर्युक्त विषयों के सम्बन्ध में मार्गभद अत्यन्त भिन्न देखा जाता है । वे अहिंसा का और ही स्वरूप प्रतिपादन करते हैं और हमारे शास्त्रों में कुछ और ही स्वरूप है । इसी तरह नरक, म्वर्ग, मोक्ष का भी पृथक २ स्वरूप वर्णन है। परन्तु उनके नामोच्चारण में तो कुछ भेद नहीं देखा जाता तो क्या इन सब को एक ही रज्जू से जकड़ देना योग्य तथा सभीचीन कहा जा सकेगा? नाहं नाह। इसालय श्राद्ध के नाम मात्रको लक्ष्य बनाकर उसके कर्तव्य पर ध्यान न देना यह पात हास्यास्पद के योग्य है।
मेरी समझ के अनुसार जैन शास्त्रानुकूल यदि श्राद्ध की प्रवृत्ति की जाय तो कुछ हानि नहीं है और न किसी को शास्त्र विहित श्राद्ध से अचि होगी ऐसा भी विश्वास है। शास्त्रों में श्राद्ध का लक्षण इस तरह किया गया है:
श्रद्धया दीयते दानं श्राद्धमित्यभिधीयते । ___ अर्थात्-भक्ति पूर्वक दान देने को श्राद्ध कहते हैं । यही उपयुक्त लक्षणानुसार श्राद्ध विषय सदाष कहा जा सकेगा क्या ? नहिं नाहं । यह लक्षण निराबाध है और न इससे जैन शास्त्रों में किसी तरह विरोध आता है प्रत्युत कहना चाहिये कि दान का दना तो श्रावकों का प्रधान और नित्यकर्म है । पद्मनन्दि महर्षि कहते हैं किः
देवपूजा गुरोभक्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ अर्थात्-श्रावकों के नित्य छह कर्मों में दान भी एक प्रधान
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