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संशयतिमिरप्रदीप।
पूर्वक विचार करके पृथ्वी, सुवर्ण, कन्या, हस्ति, और रथादिकों का दान देना चाहिये । यद्यपि शास्त्रों में कन्यादिकों के दान का निषेध है परन्तु वह ब्राह्मणों की मिथ्या कल्पना के अनुसार समझना चाहिये । जैन शास्त्रों की विधि के अनुसार देना अयोग्य नहीं कहा जासकता । जैनाचार्यों का जितना उपदेश है वह किसी न किसी अभिप्राय को लिये है। उनकी कल्पना निरर्थक नहीं हो सकती। इसे उनका पूर्ण तया माहात्म्य कहना चाहिये। जैन शास्त्रों में समदत्ति भी एक दान का विशेष प्रभेद है। उसी समदत्ति के वर्णन में इन दानों का वर्णन किया गया है। ___ इसी समदत्ति को कहते हुवे आदि पुराण में भगवाजिन सेना चार्य यो वर्णन करते हैं :
समानायात्मनान्यस्मै क्रियामंप्रव्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥ समानदत्तिरेषा स्यात्पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्यैव प्रवृत्या श्रद्धयान्विता ॥ अर्थात्-क्रिया, मंत्र, व्रतादिकों से अपने समान और संसार से निवृत्ति को चाहने वाले मध्यम पात्रों के लिये कन्या सुवर्ण हाथी रध अश्व रत्नादि वस्तुओं के यथा योग्य दान देने को समान दत्ति कहते हैं।
श्री चामुण्डराय कृत चारित्रासार में
गद्य-समदत्तिः स्वसमक्रियामन्त्राय निस्तारकोत्तमाय कन्याभूमिमुवर्णहस्त्यश्वग्थरनादिदानं स्वसमानाऽभावे मध्यमपात्रास्यापिदानमिति ।
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