Book Title: Sanshay Timir Pradip
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Swantroday Karyalay

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Page 138
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। ११९ भी प्रादुर्भवित होता है कि उन्हें जातीय वात्सल्य भी बड़ा भारी था। जिससे वे अपनी आँखों से अपनी जाति को कभी दुःखी देखने की इच्छा नहीं रखते थे । परन्तु हाय आज कहाँ वह बात ? अब तो एक का एक दुश्मन है एक का एक विन्न करता है। ठीक यह कहावत जैन जाति पर घट रही है कि “ काल के फेरसों सुमेरु होत माटी को" किसी समय जैन जाति उन्नति के शिखर पर थी आज वह रसातल निवासिनी होने की चेष्टा कर रही है तो आश्चय ही क्या है ? पाठक प्रसङ्ग ही ऐसा आपड़ा इसलिये दश पाँच पंक्ति विषयान्तर पर भी लिख डाली हैं परन्तु यदि आप लोग उन पर कुछ भी उपयोग दंगे तो वे ही पंक्तिये बहुत कुछ अंश में लाभ दायक ठहरंगी । इसी अभिप्राय से उनका लिखना उचित समझा है। मैं आशा करता हूँ कि वे आप को अश्राव्य न होगी। आश्रय करके सहित और पाप रहित श्रावकाचार का यथोक्त रीति से पालन करने वालों के लिये जिन भगवान की पूजन तथा दानादि सत्कर्मा के करने को गृह का दान देना उचित है। तात्पर्य यह है कि जबतक धर्मात्मा पुरुषों की ठीक तरह स्थिति न होगी तबतक उन्हें निराकुलता कभी नहीं हो सकती और इसी आकुलता से इनके धर्म कायर्या में सदैव बाधायें उपस्थित होती रहेगी । इसलिये धर्म कार्यो के निर्विघ्न चलने के प्रयोजन से गृह दान के देने का उपदेश है। जो लोग जिन भगवान की पूजन तथा मंत्र विधानादि करने वाले हैं परन्तु विचार अशक्त होने से पावों से गमन करने को असमर्थ हैं तो उनके लिये तीर्थ क्षेत्रादिका की यात्रा करने के लिये रथ का अथवा अश्वादि वाहना का दान देना बहुत आवश्यक है। For Private And Personal Use Only

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