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संशयतिमिरप्रदीप।
दात्रा येन सती कन्या दत्ता तेन गृहाश्रमः । दत्तस्तस्मै त्रिवर्गेण गृहिण्येव गृहं यतः ॥ अर्थात्-अपने कल्याण की इच्छा करने वाले गृहस्थों को मन वचन काय की शुद्धिं से सर्व सुखों को देने वाली सकलादत्ति का दान देना चाहिये । कुल जाति क्रिया और मंत्रों से अपने समान सधर्मी पुरुषों को पृथ्वी कन्या सुवर्ण रत्न घोड़ा और हाथी इत्यादि वस्तुओं का दान देना चाहिये।
निरन्तर गर्भधानादिक क्रिया मंत्र और व्रतादिकों की इच्छा से समानधर्मी पुरुषों के लिये कन्यादि वस्तुओं का शुभ दान देना योग्य है । संसार समुद्र के पार होने में उद्योग युक्त और प्रतिष्ठादि विधियों को जानने वाले पुरुषों का कन्यादि वस्तुओं से सत्कार करने वाला धर्म का धारक कहलाने योग्य होता है। जिसने अपनी पवित्र कन्या का दान दिया है कहना चाहिये कि उसने धर्म अर्थ और काम से युक्त गृहस्थाश्रम ही दिया है। क्योंकि गृहिणी अर्थात् स्त्री को ही तो घर कहते हैं।
सत्कन्यां ददता दत्तः सत्रिवर्गो गृहाश्रमः । गृहं हि गृहिणीमाहुर्नकुडयकटिसंहतिम् ॥ अर्थात्-सत्कन्या को देने वालों ने धर्म अर्थ और काम सहित गृहाश्रम को दिया । यही कारण है कि गृहणी का ही घर कहते हैं। लकड़ी मिट्टी के समुदाय को नहीं कहते । तथा त्रिवर्णाचार में कहा है कि:
चैत्यालयं जिनेन्द्रस्य निर्माप्य प्रतिमां तथा । प्रतिष्ठां कारयेद्धीपान्हेमः संघन्त तर्पयेत् ॥
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