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संशयतिमिरप्रदीप ।
कहो कि ऊन (रोम ) के वस्त्रादिकों को मन्दिरादि में लेजाना भी ठीक कहना पड़ेगा ? पड़ेगाही नहीं किन्तु तुम्हारे मतानुसार तो वह योग्य कहा जाय तो कुछ हानि नहीं है ?
उत्तर-हमने गोमय और चामरों के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा
है वह मन से नहीं लिखा है किन्तु जैसी महर्षियों की आज्ञा है उसी के अनुसार लिखा है यदि कहीं पर उनके काम में लाने का विधान हम ग्रन्थान्तरों में मिलता तो वेशक हम उसके ग्रहण करने का उपदेश करते परन्तु जब उसका शास्त्रा म नाम निशान तक भी नहीं है फिर क्याकर उस ठीक समझं । यह आड़ी टेड़ी कल्पना करना तो आप लागों का प्रधान कर्तव्य है नकि हमारा । हमतो महर्षिया के बनाये हुवे मार्ग पर चलने वाले हैं और न कभी हम स्वप्न में भी यह सम्भावना कर सकते हैं कि आचार्या के विरुद्ध चले । अस्तु, अब देखना चाहिये कि उनके सम्बन्ध में शास्त्रों में क्या
उपदेश है। त्रिवर्णाचार में जहां वस्त्रों का स्वरूप लिखा है वहीं पर यह लिखा हुआ है किः
रोमजं चर्मजं वस्त्रं दूरतः परिवर्जयेत् ।
अर्थात्-उनके तथा चर्म के बने हुवे वस्त्रों का दूसरे ही त्याग करना चाहिये । कहिये महाशय ! अबतो ऊन के विषय में आप समझे कि हमारा मत कैसा है ? कोई बात शास्त्र विरुद्ध तो नहीं है।
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