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संशयतिमिरप्रदीप । १०७ जिन लोगों का मत गोमय शुद्धि के विषय में संमत नहीं हैं क्या वे लोग हाथियों के गण्डस्थलों से पैदा हुवे मुक्ता फलो को, शुक्ति के भीतर पैदा हुवे मोती को, मृग के पेट में से उत्पन्न होने वाली कस्तूरी को, मयूर के शरीर की अवयव भूत मयूर पिच्छी को, चमरीगौ के चमरादि महा अपवित्र वस्तुओं को पवित्र कह सकगे ? नहिं नहिं ? और ये वस्तुएं लोक में पवित्र मानी गई हैं । कदाचित् कोई कहने लगे कि लोक से हमे क्या प्रयोजन हमें तो अपने धर्म से काम है । उसके उतर में इतना कहना ठीक समझते हैं कि जैनाचार्यों की बाबत यह बतला चुके हैं कि लौकिक विधियों के मानने में उनकी भी सम्मति है फिर इससेही गोमय शुद्धि का विधान क्यों न हो सकेगा? अतः पर उन लोगों को और भी दृढ़ श्रद्धान कराने के लिये प्रसंग वश शास्त्रों के वचनों का भी दिग्दर्शन कराते हैं।
श्रीचारित्रासार में महर्षि चामुंडराय यो लिखते हैं:
तिर्यक्शरीरजा अपि गोमयगोरोचनचमरीबालमृगनाभिमयूरपिछसर्पमणिमुक्ताफलादयो लोकेषु शुचित्वमुपगता इति ।
अर्थात्-गोमय, गोरोचन, चमरीबाल, मृगनाभि (कस्तूरी), मयूरपिच्छिका, सर्प की मणि, मुक्ताफल (मोती), आदि अपवित्र वस्तुएं यद्यपि पशुओं के शरीर से पैदा होती है परन्तु तौ भी वे लोक में पवित्र मानी गई हैं । यहां पर यह कह देना भी अनुचित नहीं कहा जा सकेगा कि कितने लोग चमर के विषय में भी विवाद करते हैं उनका कहना है कि चमरगाय के पूंछ का नहीं होना चाहिये । परन्तु ऊपर महाराज चामुंडराय के वचनों
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