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संशयतिमिरप्रदीप।
छोटा हो अथवा बड़ा उसे पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख कर के करना चाहिये । विवाहादिकों में यह बात कितनी जगहँ देखी होगी कि प्रायः क्रियायें पूर्व तथा उत्तरमुख की जाती हैं । गुरु भी शिष्य को पढ़ाते हैं तथा व्रतादिको को ग्रहण करवाते हैं अथवा और कोई संस्कारादि क्रियायें करते हैं वे सब उत्तर तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके की जाती हैं। फिर नहीं कह सकते कि जिनभगवान की पूजन में यह बात ध्यान में क्यों नहीं आती?
हां यह माना कि समवशरण में पूजन के समय दिशा विदिशाओं का विचार नहीं है परन्तु यह भी मालूम है कि समव शरण सम्बन्धी और कृत्रिम जिनमन्दिरादि सम्बन्धी विधियों में कितना अन्तर है? कभी यह बात सुनी है कि समव शरण में जिनभगवान् का अभिषेक होता है तथा और कोई प्रतिष्ठादि विधिये होती हैं । परन्तु कृत्रिम जिनमन्दिरादिकों में तो इन के बिना काम भी नहीं चलता । उसी प्रकार समवशरण में यदि दिशा विदिशाओं का विधान नभी हो तो उस से कोई हानि नहीं होती। और यहां तो बहुत कुछ हानि की संभावना है इसी लिये आचार्यों ने दिशा विदिशाओं का विचार किया है। समवशरण में दिशा विदिशाओं का विचार है या नहीं इस विषय में अभीतक शास्त्र प्रमाण नहीं मिला है। इस कारण ऊपर का लेख इस तरह से लिखा गया है । पाठको को ध्यान रखना चाहिये । यदि कहीं शास्त्र प्रमाण देखने में आया हो तो, इधर भी अनुग्रह करें। श्रीउमास्वामि श्रावकाचार में लिखा है:स्नानं पूर्वमुखी भूय प्रतीच्यां दन्तधावनम् । उदीच्या श्वेतवस्त्राणि पूजा पूर्वोत्तरामुखी ॥
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