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संशयतिमिरप्रदीप।
पावे । और यही प्रार्थना प्रत्येक जैनमहोदय से करते है कि अपनी कर्तव्य बुद्धि का परिचय ऐसी जगहँ में देने का संकल्प करें।
सन्मुख पूजन
जिस तरह जिनप्रतिमाओं को पूर्व तथा उत्तरमुख विराजमान करने के लिये प्रतिष्ठापाठादिका में लिखा हुआ है उसी तरह पूजक पुरुष के लिये भी दिशा विदिशाओं का विचार करना आवश्यक है । इस पर कितने लोगों का कहना है कि जब समव शरणादिको में यह बात नहीं सुनी जाती है कि पूजक पुरुष को अमुक दिशा में रह कर पूजन करनी चाहिये
और अमुक दिशाकी ओर नहीं तो, फिर उसी प्रकार प्रत्येक जिनमन्दिरों में भी यही बात होनी चाहिये । हम नहीं कह सकते कि धर्मकार्यो में दिशा विदिशाओं का इतना विचार किस लिये किया जाता है। धर्मकार्यों में यह विधान ध्यान में नहीं आता?
पाठक महाशय ! देखी न आचार्यों के बचनो में शंका? यही बुद्धि का गौरव है । अस्तु रहे हम कुछ प्रयोजन नहीं। केवल प्रकृत विषय पर विचार करना हमारा उद्देश है । जब छोटे से छोटे कार्यों में भी दिशा विदिशाओं का बिचार किया जाता है फिर परमात्मा के मंगलमयी पूजनादिको में इस बात को ठीक नहीं कहना क्या आश्चर्य का विषय नहीं है ? इस बात को आवालवृद्ध कहते हैं कि मंगलीककार्य चाहे
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