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संशयतिमिरप्रदीप।
पर यह वर्णन आया है कि "किसी समय महाराज धरणीध्वज सिंहासन पर विराजे हुवे थे उसी समय एक तपस्वी क्षुल्लक भी वहीं पर किसी कारण से आनिकले महाराज को उसी वक्त उनके सत्कार के लिये सिंहासन पर से उठना पड़ा थाः
अथ स प्रियधर्मनामधेयं परमाणुव्रतपालनपसक्रम् । पतिचिवधरं समान्तरस्थः सहसा क्षुल्लकमागतं ददर्श ॥ प्रतिपत्तिाभिरर्थपूर्विकाभिः स्वयमुत्थाय तमग्रहीतखगेन्द्रः। मतयो न खलूचितज्ञतायां मृगयन्ते महतां परोपदेशम् ।।
अर्थात्-किसी समय सभा में बैठे हुवे महाराज धरणीध्वज, अणुव्रत के पालन करने में दत्तचित्त और साधु लोगों के समान चिन्ह को धारण करने वाले प्रिय धर्म नामक क्षुल्लक वर्य को आये हुवे देखकर और साथही स्वयं उठकर उन्हें सत्कार पूर्वक लाते हुवे । ग्रन्थकार कहते है कि यह बात ठीक है कि बुद्धिमान् पुरुष योग्य कार्य के करने के समय किसी के कहने की अपेक्षा नहीं रखते है ।" इसी तरह जिस समय पूजन में जिन भगवान् का आह्वानन किया जाता है उस समय अवश्य उठना पड़ता है और पूजन तो बैठ कर ही की जाती है।
पूजासार में भी इसी तरह लिखा हुआ मिलता है :धौतवस्त्रं पवित्रं च ब्रह्मसूत्रं सभूपणैः । जिनपादार्चनं गन्धमाल्यं धृत्वाऽर्च्यते जिनः॥ स्थित्वा पद्मासनेनादौ णमोकारं च मंगलम् । उत्तमं सरणोच्चारं कुर्वत्यईत्मपूजने ॥
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