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संशयतिमिर प्रदीप।
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उसी समय हो सकता है जिस समय उसका प्रचार
भी हो। मैं जहां तक इस विषय पर अपने ध्यान को देता है तो, मेरी समझ के अनुसार बसुनन्दि स्वामी के निलेप प्रतिमाओं के सम्बन्ध में लिखने का यह कारण प्रतीत होता है । गन्ध लेपन पूजनादि में तो लगाया हो जाता है । परन्तु यदि एक तरह इसे प्रतिष्ठित प्रतिमाओं का भी चिन्ह कहा जाय तो. कुछ हानि नहीं है और इसोलिये बसुनन्दि स्वामी का भी कहना है कि प्रतिमाओं के निर्लेप रहने से यह नहीं कहा जा सकता कि ये प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं । इसी धोखे से प्रतिठित प्रतिमाओं को भी लोग पूजने लग जाय तो आश्चर्य नहीं । इस के सिवाय और बात ध्यान में नहीं पाती । यह कोई नियम नहीं है कि जिसका प्रचार हो उसो का निषेध होता है कितनी बातें ऐसी देखने में आती हैं जिनका प्रचार तो नहीं है और निषेध है हो। यही कारण है कि जैनियों में मांस, मदिरा और शिकारादिकों का प्रचार न होने पर भी उन्हें सनी के साथ में इनके त्याग का उपदेश दिया जाता है
गन्ध लेपनादिकों को निषेध करने वालों का मत प्राचीन हो, सो भी नहीं है। इस विषय में पं० वखतावर मल अपने बनाये हुवे "मिथ्यात्व खण्डन ग्रन्थ में यों लिखते हैं :आदि पुरुष यह जिन मत भाष्यो,
भवि जीवन नौके अभिलाष्यो। पहले एक दिगम्बर जानो,
तातें श्वेताम्बर निकसानी॥
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