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संशय तिमिरप्रदीप |
अर्थात् - उत्तम कर्पूर, घी, और रत्नादिकों के दीपकों से तीनों काल जिनभगवान् की पूजन करने वाला कान्ति का भाजन होता है। अर्थात् - दीपक से पूजन करने वाला अतिशय तेज का धारण करने वाला होता है।
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महर्षियों की प्रत्येक ग्रन्थों में इसी तरह आशा है परन्तु इस समय की प्रवृत्ति के देखने से एक तरह विलक्षण कल्पना का प्रादुर्भाव दिखाई पड़ता है । क्या अविद्या को अपने ऐसे विषम विष का प्रयोग चलाने के लिये जैन जातिही मिली है ? क्या आचार्यों का अहर्निश परिश्रम निष्प्रयोजन की गणना में गिना जावेगा ? क्या जैनसमाज उनके भारी उपकार की कदर नहीं करेगा ? हन्त ! यह अश्रुत पूर्व कल्पना कैसी ? यह असंभावित प्रवृति - कैसी ? यह महर्षियों के बचनों से उपेक्षा कैसी ? नहि नहि ठीक तो है यह तो पञ्चम काल है न ? महाराज चन्द्रगुप्त के स्वप्नों का साक्षाकार है। वे लोग शान्त भावों का सेवन करें जिन्हें अपने प्राचीन गुरुओं के बचनों पर भरोसा है। यह शान्त भाव कभी उन्हें कल्पतरु के समान काम देगा । परन्तु शान्तभाव का यह अर्थ कभी भूल के भी करना योग्य नहीं
कि अपने शान्त होने के साथही महर्षियों के भूतार्थ बचनों के बढ़ते हुवे प्रचार को रोक कर उन्हें भी सर्वतया शान्त करदें । ऐसे अर्थ को तो, अनर्थ के स्थानापन्न कहना पड़ेगा। इसलिये वचनों के प्रचार में तो दिनोंदिन प्रयत्न शील होते रहना चाहिये ।
हमें दीप पूजन की मीमांसा करना है। पाठक महाशय भी जरा अपने उपयोग को सावधान करके एक बक्त उसपर विचार करडाले ।
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