________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
wwwm
संशयतिमिरप्रदीप । श्री पद्मनन्दि पश्चीसी में यों लिखा है:आरार्तिकं तरलवन्हिशिखा विभाति
स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिबिम्बितं सत् । ध्यानानलो मृगयमाण इवावशिष्टं
दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचण्डम् ।। अर्थात्-जिन भगवान् के निर्मल शरीर में चञ्चल अग्नि की शिखा करके युक्त, आरार्तिक अर्थात्-आरति करने के समय का दीप समूह प्रति विम्बित होता हुआ शोभा को प्राप्त होता है । इस जगहें भगवान्पगनन्दि उत्प्रेक्षा करते हैं कि जो दीपक जिनभगवान् के शरीर में प्रतिबिम्बित होता है वह वास्तव में दीपक समूह नहीं है किन्तु बाकी के बचे हुवे प्रचण्ड कर्मसमूह को भस्म करने के लिये ढूंढने वाला ध्यान रूप अमि है क्या ? श्री उमास्वामी श्रावकाचार में लिखते हैं:मध्यान्हे कुसुमैः पूजा सन्ध्यायां दीपधृपयुक् । वामांगे धृपदाहश्च दीपपूजा च सम्मुखी ॥ अर्हतो दक्षिणे भागे दीपस्य च निवेशनम् । अर्थात्-मध्यान्ह समय में जिन भगवान की पूजन फूलो से, और संन्ध्या काल में दीप धूप से करनी चाहिये । वाम भाग में धूप दहन करनी चाहिये । दक्षिण भाग में दीपक चढ़ाने की आज्ञा है। और दीप पूजन जिन भगवान के सामने होनी चाहिये।
श्री षट्कर्मापदेश रत्नमाला में:त्रिकालं वरकर्पूरघृतरत्नादिसंभवैः । प्रदीपैः पूजयन् भव्यो भवेद् भाभारभाजनम् ॥
For Private And Personal Use Only