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संशयतिमिरप्रदीप ।
बात हम लोगों के लिये निभ सकेगी? इसका जरा सन्देह है। यदि हम सचित्त वस्तुओं का सर्वथा परित्याग किये होते तो, यह बात किसी अंश में सफल हो सकती थी। परन्तु दिन रात सचित्त वस्तुओं के स्वाद पर तो हम मुग्ध हो रहे हैं फिर क्यों कर यह श्रेणि हमारे लिये सुखद कही जा सकेगी? प्रश्न-हम लोग सचित्त वस्तुओं का सेवन करते हैं उससे
पूजन में भी चढ़ाना यह समानता कैसे होसकेगी ? इसका तो यह अर्थ होसकता है कि हम नाना तरह विषयोपभोगों का सेवन करते हैं जिनभगवान् काभी
उनसे सम्बन्ध रहना चाहिये ? उत्तर-हमारे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि तुम अपने
समान जिन भगवान् को भी बनालो। इसे तो एक तरह की असत्कल्पना कहनी चाहिये । परन्तु यह वात मीमांसा के आधीन है कि जो बात शास्त्रानुसार जिन भगवान् के लिये नहीं लिखी हुई है उसका तो उनके लिये सर्वथा निरास ही समझना चाहिये । रहा शास्त्रानुसार विषय का सो वह तो उसी प्रकार अनुष्ठेय है जिस तरह उसका करना लिखा हुआ है। इसी लिये यह कहना है कि पहले तो शास्त्रों में हरित फलों के चढ़ाने की परम्परा है दूसरे सचित्त पदार्थो से हम विरक्त हो सो भी नहीं है फिर निष्कारण शास्त्रों की मर्यादा तोड़ना क्या कर उचित कहा जा सकेगा।
सचित फलों के चढ़ाने से हिंसा होती है यह कहना भी ठीक नहीं है। इसे हम क्या कहें! सांसारिक कार्यों
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