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संशयतिमिरप्रदोप।
उत्तर दीपक पूजन में आरम्भादि दोषों को बताने बालों के लिये
लिखा है किभणत्येवं कदा कोऽपि दीपपुष्पफलादिभिः । कृला पूजाऽत्र सावद्या कथं पुण्यानुबन्धिनी ॥ तं प्रत्येवं वदेज्जैनस्त्यागे हिंसादिकर्मणाम् । मातस्तव विशुद्धा चेधृभोगादिकं त्यज । जिनयात्रारथोत्साहप्रतिष्ठाऽऽयतनादिषु । क्रियमाणेषु पाएं स्यात्तर्हि कार्य न तत्त्वया ।।
अर्थात्-यदि कोई कहें कि दीप, पुष्प, फलादिको से की हुई जिनभगवान की पूजन सावध (पाप) करके युक्त रहती, है फिर वह पुण्य के बन्ध की कारण कैसे कही जा सकेगी? उसके लिये उत्तर दिया जाता है कि यदि हिंसादि कर्मा के त्याग करने में तुम्हारी बुद्धि निर्मल होगई है तो, स्त्री, पञ्चन्द्रिय सम्बन्धी भोगादिकों के त्याग करने में प्रयत्न करो। तीर्थयात्रा, रथोत्सव, प्रतिष्ठा, मकानादिकों का बनवाना आदि कार्यों के करने में यदि पाप होता है तो, तुम्हें नहीं करने चाहिये।
इन बातों के देखने से स्पष्ट प्रतीति होती है कि शास्त्रानुसार दीपक का चढाना अनुचित नहीं है । किन्तु अच्छे फल का कारण है । इसी से तो कहा जाता है किः
तमखण्डन दीप जगाय धारूं तुम आगे । सब तिमिर मोह क्षयजाय ज्ञान कला जागे ।
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