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६.
संशयतिमिरप्रदीप ।
अर्थात्- अपनी प्रभा समूह से सूर्य के समान तेज को धारण करने वाले, धूमरहित शिखासे संयुक्त, मन्द मन्द वायु से नृत्य को करते हुवे, और मेघपटल के समान कर्म रूप अंधकार के समूह को अपने प्रकाश से दूर करने वाले दीपका से जिन भगवान के चरण कमलों के आगे रचना करनी चाहिये।
श्री योगीन्द्र देव श्रावकाचार में या लिखते हैं:दीवंदइ दिणइ जिणवरहं मोहं होइणहाइ ।
अर्थात्-जो जिन भगवान् की दीपक से पूजा करते हैं उनका मोह अज्ञान नाश को प्राप्त होता है।
श्री इन्द्रनदि पूजासार में लिखा है:ॐ केवल्यावबोधार्को द्योतयन्नखिलं जगत् । यस्य तत्पादपीठाग्रे दीपान् प्रद्योतयाम्यहम् ।।
अर्थात् --जिनके केवल ज्ञान रूप सूर्य ने सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित किया है उन जिन भगवान के चरणों के आगे दीपको को प्रज्वलित करता हूं।
श्री धर्मसार संग्रह में लिखा है किः-- मुत्रामशेखरालीहरत्नरश्मिभिरंचितम् । दीपैर्दीपिताशास्र्योतयेऽईत्पदद्वयम् ॥
अर्थात्--दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले दीपकों खि पन्द्र के मुकुट में लगे हुवे रत्नों की किरणों से युक्त जिन भगवान के चरणों को, प्रकाशित करता हूं।
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