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संशयतिमिरप्रदीप ।
अर्थात्-किसी समय पवित्र धर्मको स्वीकार करके, अष्टान्हिक पर्व सम्बन्धी उपवासों से खेद खिद्र शरीर को धारण करने वाली जयसेना जिन भगवान् को पूजन करके भगवान् के चरण कमलों पर चढ़ने से पवित्र और पापों के नाश करने वालो पुष्पमाला को विनय पूर्वक अपने दोनों हाथों से पिता के लिये देतो हुई। त्रैलोक्यसार में भगव–मिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ति लिखते है :
गाथाचंदशाहिसेयणचणसङ्गोयवलोयमन्दिरहिं जुदा। कोडण गुगा गागिहहिअविसालवरपट्टसालाहिं ।
अर्थात्-चन्दन करके जिन भगवान् का अभिषेक, नृत्य, सङ्गीत का अवलोकन, मन्दिरों में योग्य क्रीड़ा का करना, और विशाल पदृशाला करके, और सम्बन्ध आगे की गाथा में है । यहां पर प्रयोजन मात्र लिखा है।
श्रीवौरनन्दि चन्द्रप्रभु काव्य में लिखते हैंवीतरागचरणो समय॑ सद्गन्धधूपकुसुमानुलेपनैः
अर्थात्-चक्रवर्ति पहले धूप, गन्ध, पुष्य और अनुलेपनादिकों से जिनमगावान् के चरणों को पूजन करके फिर चकरन की पूजन करता हुअा, इसी तरह गन्ध लेपनादिकों का विधान भट्टारकों के प्रन्यों में लिखा हुआ है। इनके सिवाय और अधिक कोई बात हमारे ध्यान में नहीं पाती। इसे कितने आश्चर्य की बात कहनी चाहिये कि दो वर्ष के बच्च को भी इस तरह साहम के करने को इच्छा जाग्रत नहीं होती है। फिर तत्व के जानने वालों में प्रसत्कल्पना करना कहां तक ठीक कही जा सकेगो ?
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