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संशयति मिरप्रदीप।
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और भोजन की समानता नहीं हो सकती। और न पूजन में भोजन की अपेक्षा से कोई वस्तु चढ़ाई जाती है। पूजन करना केवल परिणामों की विशुद्धता का कारण है। नैवेद्य के चढ़ाने से न तो भगवान् सन्तोष को प्राप्त होते हैं और न चढाने से क्षुधात रहते हो सोभी नहीं है। परन्तु महार्षिया ने यह एक प्रकार से सीमा बांधदी है कि जिन भगवान् श्रुधा तृषादि अठारह दोषों से रहित है इसलिये वही अवस्था हमारी हो । यही नैवेद्य से पूजन करने का अभिप्राय है। संसार में इसे कोई अस्वीकार नहीं करेगा कि साधु पुरुषों के संसर्ग से पुरुषों में साधुता (सजनता) आती है और दुर्जनों के सहबास से दौजन्यता। इसीतरह क्षुधा की सेवा से क्षुधा नहीं मिट सकती। किन्तु जो इसविकल्प से रहित है उसी की उपासना करने से मिटैगी। जिन भगवान् में ये दोष नहीं देखे जाते हैं इसीलिये नैवेद्य से हम उनकी उपासना करनी पड़ती है । नैवेद्य सामान्यता से खानेयोग्य पदार्थों को कहते हैं और उसी के चढ़ाने की शास्त्रों में आज्ञा है। फिर उस में यह विकल्प नहीं करसकते कि पक्कानादि चढाना योग्य है और तात्कालिक प्रासुक भोजन सामग्री योग्य नहीं है। परिणामों की पवित्रता के अनुसार कञ्ची तथा पक्कानादिक सभी सामग्री का चढ़ाना अनुचित नहीं कहा जासकता । इसी विषय को शास्त्रप्रमाणों से और भी दृढ करने के लिये विषेश लिखना उचित समझते हैं।
श्री वसुनन्दि श्रावकाचार में लिखा है किःदहिदुद्धसप्पिमिस्सेहिं कमलमत्तएहिं बहुप्पयारेहि तेवटिवजणेहिं य बहुविहपक्कणभेएहि ॥
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