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संशयतिमिरप्रदीप।
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प्रश्न-ये तो महारक हैं ? उत्तर-अस्तु । क्या हानि है ?
प्रश्न-हानि क्यों नहिं ? भट्टारको के ग्रन्थों को प्रमाण नहीं
मान सकते । क्योंकि जिस तरह वे नाना तरह के प्राडम्बर के रखने पर भी अपने को गुरु कहते हैं परन्तु शास्त्रों में तो गुरु का यह लक्षण हैविषयाशावशातीतो निगरम्भोज्परिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ अर्थात् - गुरु को विषय सम्बन्धी अभिलाषा, प्रारंभ और परिग्रह नहीं होने चाहिये। ये लक्षण भट्टारकों में नहीं घटते हैं। इसी तरह उन्हीं ने अपनी पक्ष को दृढ़ करने के लिये शास्त्रादि भी अन्यथा बनादिये हो तो क्या आश्चर्य है ? उत्तर-इसे भी एक तरह का असंबद्ध प्रलाप कहना चाहिये।
मैं नहीं कह सकता महारको ने ऐसा कौन सा बुरा काम किया है। जिस से उनके किये हुवे असोम
उपकार पर भी पानी मा फिरा जाता है। यदि आज भहारकों की सृष्टि की रचना न होती तो दहलो में बादशाह के “ या तो तुम अपने गुरुओं को बताओ अन्यथा तुम्हें मुसलमान होना पड़ेगा" इस दुराग्रह को कोई दूर कर सकता था ? अथवा कितनी जगहूँ आपदग्रस्त जैन धर्म को भट्टारकों के न होने से बेखटके कोई किये देता था ? जो आज उनके उपकार के बदले वे स्वयं एक तरह को बुरी दृष्टि से देखे जाने लगे हैं । प्रस्तु, और कुछ नहीं तो इतना तो
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