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संशयतिमिरप्रदीप। ४१ तिन में पकसि भई अति भारी,
__सो तो सब जानत नर नारी। ताही मांझि वहसि अब करिक,
तेरहपंथ चलायो अरिकै। तब कितेक बोले बुधिवन्त,
किंह नगरी उपज्यो यह पंथ । किंह सम्बत कारण कहु कौन,
सो समझाय कहो तजि मौन । प्रथम चल्यो मत आगरे श्रावक मिले किर्तक । सोलह से तौयासिये गही कितुक मिलि टेक ॥ काह पण्डित पैं सुनें किते अध्यातम ग्रन्थ । श्रावक किरिया छोड़ि के चलन लगे मुनि पन्थ ॥ फिर कामा में चलि पस्यौ ताही के अनुसारि। रोति सनातन छांड़ि के नई गही अघकारि॥ केसर जिनपद चरचिवौ गुरु नमिवो जगसार । प्रथम तजी ए दोय विधि मन मह ठानि असार ॥ ताही के अनुसार तें फैल्यो मत विपरीत। सो सांची करि मांनियो झठ न मानहु मौत ॥
इस कथा के अनुसार यह ठोक २ मालम पड़ता है कि जिन लोगों का मत गन्ध लेपनादिक विषयों के निषेध करने
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