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४८ संशयतिमिरप्रदीप ।
अर्हच्चरणसपर्यामहानुभावं महात्मनामवदत्। भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ तथा सूक्तिमुक्तावलि में :यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुर
खौलोचनैः सोऽर्च्यते। अर्थात् -जो जिन भगवान् की फूलों से पूजा करते हैं वे देवाङ्गानाओं के नेत्रों से पूजन किये जाते हैं । अर्थात् पुष्य पूजन के फल से स्वर्ग में देव होते हैं।
उन्हीं पुष्पों के सम्बन्ध में ये सचित्त होते हैं। इनके चढ़ाने से हिंसा होती है। इत्यादि असंभावित दोषों के बताने से लोगों के दिल को विकल करना कहां तक ठोक कहा जा मकंगा यह मैं नहीं कह सकता।
पुष्यों के चढ़ाने में हिंसा नहीं होती यह ठोक २ बता चुके हैं। इतने पर भी जिन्हें अपने अहिंसा धर्म में बाधा मा. लम पड़ती है उन से हमारा यह कहना है कि जिन मत में संकल्पी तथा प्रारंभी इस तरह हिंसा के दो विकल्प हैं। करना चाहिये कि पुष्यों के चढ़ाने में कौन सी हिंसा कही जा सकेगी ? यदि कहोगे संकल्पो हिंसा है तो, उसे सिद्ध करके बतानी चाहिये । मैं जहां तक ख्याल करता हूं तो, पुष्यों के चढ़ाने में संकल्पी हिंसा कभी नहीं हो सकती । और न इसे कोई स्वीकार करेगा।
यदि पुष्यों के चढ़ाने में संकल्पो हिंसा मानली जाय तो, अाजहो जैनियों को अपने अहिंसा धर्म का अभिमान छोड़ देना पड़ेगा। असंबद्ध प्रलाप करने वालों को जरा भगवान की
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