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संशयतिमिरप्रदीप।
तथा कुटुम्बभोग्यार्थमारम्भः पापकद्भवेत्।
धर्मकहानपूजादौ हिंसालेशो मतः सदा ॥ अर्थात--जो जिन भगवान को की हुई पूजा अनेक जन्मों के पापों को नाश करती है क्या वह पूजन के सम्बन्ध से उत्पन्न हुये सावध पापों को नाश नहीं करेगौ ! पर जहां प्रचण्ड वायु के वेग से पर्वतों के समान हाथो तक उड़ जाते हैं वहां अल्पशक्ति के धारक दंश मंशकादि क्षुद्र जीवों को तो कथा हो क्या है ? देखो। जिस प्रकार खाया हुआ केवल विष प्राणों के नाश का कारण होता है, परन्तु मरोचादि उत्तम औषधियों के साथ खाया हुअा वही विष जीवन के लिये होता है। इसी प्रकार जो पारंम कुटुम्ब और भोग के लिये अर्थात् मांसारिक प्रयोजन के लिये किया जाता है, वह पाप के लिये ही होता है। परन्तु धर्म के कारणभूत दान, पूजन, प्रतिष्ठा, अभिषकादि के लिये जो आरंभ होता है वह निरन्तर हिंसा का लेश माना जाता है और वही आरंभ रहस्थों के लिये स्वर्गादि संहतियाँ का कारण होता है।
इसी तरह भगवान् समन्तभद्र स्वामी भी हत्वयंभूस्तोत्र में लिखते है:पूज्य जिनं त्वायतो जिनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशी ।।
अर्थात्-जिस तरह समुद्र में पड़ी हुई विषय को कणिका समुद्र के जल को विकार रूप नहीं कर सकतो। उसी तरह जिन भगवान् को पूजन करने वाले पुरुषाँ के बड़े भारी पुण्य
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