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संशयतिमिरप्रदीप।
का भङ्ग कहोगे तो, क्या उसी तरह हाथ २ दो दो हाथ वस्त्र के सम्बन्ध से शान्तमुद्रा का भङ्ग हम नहीं कर सकते है ! यदि वास्तव में तत्वदृष्टि में विचारा जाय तो इस प्रकार कहना किसी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों के मत से गन्ध लेपनादिकों के संसर्ग से जिन प्रतिमापों की शान्तमुद्रा का भङ्ग होना माना जाता है उन लोगों के सूक्ष्मतर अभिप्रायों के अनुसार प्रतिमानों को करोड़ों रुपयों के लागत के जिनालयों में विराजमान करना, अमौल्य रत्नादिकों के सिंहासनादिकों पर विराजमान करना, चांदो सोने के रणादिकों में बैठाकर बाजारों में सवागे निकालना, तथा उनके ऊपर लाखों रुपयों के छत्र, चामर, पौर भामंडलादि लगाना ये सब कारण शान्तमुद्रा के बाधक हैं । इसी कारण मुनियों को इन के सम्बन्ध का निषेध किया गया है। क्या शान्तमुद्रा के धारण करने वाली के लिये छोटे मकान में काम नहीं चलता ? सिंहासन, भामंडल, छत्र, चामरादिकों के न रहने से सौम्य छवि में बाधा भावेगी क्या ? अथवा बोतरागियों को रथ में बैठे बिना काम नहीं चलेगा ? मैं तो इन बातों
को स्वीकार नहीं कर सकता। प्रश्न-वीतरागियों के लिये न तो मन्दिरों की आवश्यक्ता है।
न सिंहासन, भामंडल, छत्र, और चामरादिकी को जरूरत है । और रथ में बैठे विना काम नहीं चलता सो भी नहीं है। किन्तु यह एक भव्य पुरुषों की गाढ़ भक्ति का परिचय है। तथापहले भी समवशरणादिकों
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