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संशयतिमिरप्रदीप। २९ वासाणुमग्गसंपत्तामयमत्तालिरावमुहलेण । सुरमउडघडियचरणं भत्तिए समलहिज्ज जिणं ॥
भावार्थ- देवताओं के मुकुट मे घर्षित जिम भगवान के चरण कमलों पर कप्पर, केशर, अगुरु, और मलयागिरि चन्दन पादि अतिशय सुगन्धित व्यों से मिला हुआ, अत्यन्त सुगन्ध से दशों दिशाओं के समूह को सुगन्धित करने वाला, और अपनो स्वाभाविक सुगन्ध से पाई हुई भ्रमरों की श्रोणि के शब्दों से शहायमान पवित्र चन्दन के रस से भक्ति पूर्वक लेप करना चाहिये। श्री पद्मनन्दि पच्चीसी में :यद्दद्दचो जिनपतेर्भवतापहारि __नाहं मुशीतलमपौह भवामि तहत् । क'रचन्दनमितीव मयार्पित्तं सत्
त्वत्पादपंकजसमाश्रणं करोति ॥ अर्थात्-इस संसार में जिस तरह जिन भगवान् के वचन संमार के संताप को नाश करने वाले हैं, और शीतल मो हैं उसी तरह में शीतल नहीं है । इसो कारण मेरे द्वारा चढ़ा हुपा चन्दन श्राप के चरणों का आश्रय करता है। इसो श्लोक को टीका में लिखा हुआ है कि :-"अनेन व्रतेन चन्दनं प्रतिप्यते टिप्पका त्र दोयते" इति ॥
श्री अभयनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ति श्रेयोविधान में यों लिखते हैं:
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