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संशयतिमिरप्रदीप ।
करते हैं। परन्तु देव के यथार्थ स्वरूप में प्रायः वेपनभित है। इसलिये जिन लोगों का मत जिन प्रतिमाओं पर गन्धपुष्यादिकों के चढ़ाने का है वह ठीक नहीं है। जिनप्रतिमाओं की वास्तविक छविको विगाड़ कर दुर्मतियों ने उन्हें कुदेव की तरह बना दो हैं । इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुषों से हम अनुरोध करते हैं कि जिनप्रतिमानों के ऊपर गन्धपुष्पादि चढ़े हो उन्हें नमस्कारादि नहीं करना चाहिये।
इसो सरह और भी प्रसत्कल्पनाओं का म्यूह रचा जाता है। उसमें प्रवेश किये हुवे मनुथों का निकलना एक तरह कठिन हो जाता है कठिन हो नहीं किन्तु नितान्त ही असंभव हो जाता है। यही कारण है कि पाज विपरोत प्रवृत्तियों के दूर करने के लिये प्राचीन महर्षियों के ग्रन्थों के हजारों प्रमाणी के दिखाये जाने पर भी किसो की उन पर श्रद्धा अथवा मति उत्पत्र नहीं होती । अस्तु । उन अन्यों को चाहे कोई न माने तो, न मानो वे किसी के न मानने से अप्रमाण नहीं हो सकते। परन्तु यह बात उन लोगों को चाहिये कि किसी विषय की समालोचना यदि करनी ही होतो, जगसरल और सीधे शब्दों में करनी चाहिये । कटक शब्दों में की हुई समालोचनाका ममाज पर कैसा असर पड़ेगा, यह बात विचारने के योग्य है । लेखक महाशय ने जितनी कड़ी लिखावट जिन प्रतिमानों के मम्बन्ध में लिखी है उससे मो कहीं अधिक उस मम्प्रदाय के लोगों पर लिखी होती तो हमें इतना दुःख और खेद नहीं होता जितना जिनप्रतिमाओं के सम्बन्ध को लिखावट के देखने में होता है।
ये दोहे चाहे किसी विद्वान के बनाये हुवे हो अथवा छोटी
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