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संशयतिमिरप्रदीप।
जा सकता है कि पूज्य तथा अपूज्यत्व को शक्ति गन्धपुष्यादिकों में है स्वतः स्वभाव प्रतिमात्रों में पूज्यत्व नहीं है। इसलिये जब गन्धपुष्पादिक चढ़े हुवे रहते हैं तब तो प्रतिमाओं का प्रभुत्व चला जाता है और ज्योंहो उसे जल से धो डाला उसी समय प्रभुत्व, दौड़ कर आ बैठता है । इस पर हमारी यही समीक्षा है कि जिन प्रतिमानों के त्रैलोक्य पूज्यत्व गुण को अतिशय अल्प गन्ध हरण कर लेता है उन प्रतिमानों के दर्शनों से हमारे जीवन जीवन के पाप कैसे दूर हो सकेंगे? जिन प्रतिमाओं में अपने बड़े भागे पूज्यत्व गुण को रक्षा जरा से गन्ध से करने की सामर्थ्य नहीं है उन प्रतिमाओं के पूजन विधानादिकों से कर्म समूह का पराजय होना एक तरह से दुष्करहो कहना चाहिये ॥
यदि केवल गन्धपुष्यों के चढ़ने मात्र से जिन प्रतिमाओं में अपूज्यत्व को कल्पना करलो जाय तो, भामंडल, छत्र, रथ, और चामरादिक पदार्थों का निरन्तर सम्बन्ध रहने से क्यों कर पूज्यता बनी रहैगो ? भामंडलादि तो गन्धपुष्पों से और भी अधिक हानि के कारण है।
प्रश्न-मामंडलादिकों का प्रतिमाओं से सम्बन्ध नहीं रहताहै।
और गन्धपुष्यादिकों को तो उनके चरणों पर हो चढ़ाने पड़ते हैं । इस लिये भामंडलादि और गन्धपुष्पादिकों को समानता नहीं हो सकती । और यदि यही बात मानली जाय तो, अकलंक स्वामि के प्रतिमा पर तन्तुमात्र के डालने से वह अपूज्य क्योमानी गई थो? जिस तरह तन्तु प्रतिमाओं के निर्ग्रन्थता का बाधक है उसी
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