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संशय तिमिरप्रदीप |
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कर्मों की निर्जरा करने के लिये दिन भर में अच्छी तरह से शायद एक घंटा भी मिलना कठिन हो ऐसी अवस्था में उन्हें संसार के छोड़ने का उपदेश देना एक तरह से कार्यकारी नहीं कहा जा सकता। इस कहने का यह मतलब नहीं समझना चाहिये कि उन लोगों की संसार के छोड़ने की उत्कट इच्छा रहते हुये भी निषेध हो ? नहीं, किन्तु जो लोग सर्वतया संसार में फँसे हुये हैं जिन्हें उसकी ओर से एक मिनट के लिये भी चमकना दुश्वार है उन्हीं लोगों के बाबत यह कहना है। हां यह माना जा सकता है कि उन लोगों के लिये संसार का निरास करना वेशक कठिन है परन्तु इस का यह अर्थ नहीं कहा जा सकता कि ऐसे लोग दिन भर में एक घंटा भी धर्मकार्य में नहीं लगा सकते हों। और जिन लोगों का दिल मंसार सम्बन्धी विषयादिकों से बिलकुल विरक्त हो गया है उन लोगों के लिये किसी तरह का प्रतिबन्ध भी नहीं है कि वे इतनी अवस्था के सुधरने पर ही संसार के छोड़ने का प्रयत्न करें। किन्तु उनकी इच्छा के अनुसार ऐसे लोगों के लिये सदा हो बन का रास्ता खुला रहता है । परन्तु महर्षियों की तो इन लोगों का भी भला करना इष्ट है जिन्हें संसार से छुट्टी पाने का मौका मिलना कठिन है । यही कारण है कि श्राचार्यों ने
स्थों के लिये सब से पहले कल्याण का मार्ग जिन भगवान को पूजन करना बताया है। भगवान की पूजन करने वालों का चित्त जब तक पूजन की ओर लगा रहता है तब तक वे संसार सम्वन्धी बातों से अवश्य पृथक रहते हैं। इसका अनुभव उन लोगों को अच्छी तरह से है जिन्हें जिन देव की सेवा के करने का समय मिला है ।
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