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.अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
पहले विश्वेदेवोंके लिये आसन देकर जौ और पुष्पोंसे हो जाता है। इसलिये पितरोंके पिण्डोंपर अर्घ्य चढ़ानेके उनकी पूजा करे। [विश्वेदेवोंके दो आसन होते हैं; लिये चाँदीका ही पात्र उत्तम माना गया है। चाँदी एकपर पिता-पितामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका आवाहन भगवान् श्रीशङ्करके नेत्रसे प्रकट हुई है, इसलिये वह होता है और दूसरेपर मातामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका। पितरोंको अधिक प्रिय है। उनके लिये दो अर्य-पात्र (सिकोरे या दोने) जौ और इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओंमेंसे जो सुलभ हो, जल आदिसे भर दे और उन्हें कुशकी पवित्रीपर रखे। उसके अर्घ्यपात्र बनाकर उन्हें ऊपर बताये अनुसर जल, 'शन्नोदेवीरभीष्टये' इत्यादि मन्त्रसे जल तथा तिल और गन्ध-पुष्प आदिसे सुसज्जित करे; तत्पश्चात् 'यवोऽसि-' इत्यादिके द्वारा जौके दोनोंको उन पात्रोंमें 'या दिव्या आपः' इस मन्त्रको पढ़कर पिताके नाम और छोड़ना चाहिये। फिर गन्ध-पुष्प आदिसे पूजा करके वहाँ गोत्र आदिका उच्चारण करके अपने हाथमें कुश ले ले। विश्वेदेवोंकी स्थापना करे और 'विश्वे देवास'-इत्यादि फिर इस प्रकार कहे--'पितृन् आवाहयिष्यामि'दो मन्त्रोंसे विश्वेदेवोंका आवाहन करके उनके ऊपर जौ 'पितरोंका आवाहन करूँगा।' तब निमन्त्रणमें आये हुए छोड़े। जौ छोड़ते समय इस प्रकार कहे-'जौ ! तुम ब्राह्मण 'तथास्तु' कहकर श्राद्धकर्ताको आवाहनके लिये सब अन्नोंके राजा हो। तुम्हारे देवता वरुण हैं-वरुणसे आज्ञा प्रदान करें। इस प्रकार ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; तुम्हारे अंदर मधुका मेल है। 'उशन्तस्त्वा निधीमहि-' 'आयन्तुनः पितरः-'इन तुम सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाले, पवित्र एवं मुनियोंद्वारा दो ऋचाओंका पाठ करते हुए वह पितरोंका आवाहन प्रशंसित अन्न हो।'* फिर अर्घ्यपात्रको चन्दन और करे। तदनन्तर, 'या दिव्या आपः-' इस मन्त्रसे फूलोंसे सजाकर 'या दिव्या आपः'-इस मन्त्रको पढ़ते पितरोंको अर्घ्य देकर प्रत्येकके लिये गन्ध-पुष्प आदि हुए विश्वेदेवोंको अर्घ्य दे। इसके बाद उनकी पूजा करके पूजोपचार एवं वस्त्र चढ़ावे तथा पृथक्-पृथक् संकल्प गन्ध आदि निवेदन कर पितृयज्ञ (पितृश्राद्ध) आरम्भ पढ़कर उन्हें समर्पित करे। [अर्घ्यदानकी प्रक्रिया इस करे। पहले पिता आदिके लिये कुशके तीन आसनोंकी प्रकार है-] पहले अनुलोमक्रमसे अर्थात् पिताके कल्पना करके फिर तीन अर्घ्यपात्रोंका पूजन करे- पन्हें उद्देश्यसे दिये हुए अर्घ्यपात्रका जल पितामहके पुष्प आदिसे सजावे। प्रत्येक अर्घ्यपात्रको कुशको अर्घ्यपात्रमें डाले और फिर पितामहके अर्घ्यपात्रका सारा पवित्रीसे युक्त करके 'शन्नोदेवीरभीष्टये-' इस मन्त्रसे जल प्रपितामहके अर्घ्यपात्रमें डाल दे, फिर सबमें जल छोड़े। फिर 'तिलोऽसि सोमदेवत्यो-' इस विलोमक्रमसे अर्थात् प्रपितामहके अर्घ्यपात्रको मन्त्रसे तिल छोड़कर [बिना मन्त्रके ही] चन्दन और पितामहके अर्घ्यपात्रमें रखे और उन दोनों पात्रोंको पुष्प आदि भी छोड़े। अर्घ्यपात्र पीपल आदिकी उठाकर पिताके अर्घ्यपात्रमें रखे। इस प्रकार तीनों लकड़ीका, पत्तेका या चाँदीका बनवावे अथवा समुद्रसे अर्घ्यपात्रोंको एक-दूसरेके ऊपर करके पिताके आसनके निकले हुए शङ्ख आदिसे अर्घ्यपात्रका काम ले। सोने, उत्तरभागमें 'पितृभ्यः स्थानमसि' ऐसा कहकर उन्हें चाँदी और ताँबेका पात्र पितरोंको अभीष्ट होता है। दुलका दे-उलटकर रख दे। ऐसा करके अन्न चाँदीकी तो चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। परोसनेका कार्य करे। चाँदीका दर्शन अथवा चाँदीका दान उन्हें प्रिय है। यदि परोसनेके समय भी पहले अग्निकार्य करना चाहिये चाँदीके बने हुए अथवा चाँदीसे युक्त पात्रमें जल भी अर्थात् थोड़ा-सा अन्न निकालकर 'अग्नये कव्यवाहनाय रखकर पितरोंको श्रद्धापूर्वक दिया जाय तो वह अक्षय स्वाहा' और 'सोमाय पितृमते स्वाहा'-इन दो मन्त्रोंसे
* यवोऽसि धान्यराजस्तु वारुणो मधुमिश्रितः । निर्णोदः सर्वपापानां पवित्रमुषिसंस्तुतम् ॥