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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
और चौड़ाई चार अङ्गलकी होनी चाहिये। साथ ही, कई पिण्ड बनावे और एक-एक पिण्डको दाहिने हाथमें खैरकी तीन दवीं (कलछुल) बनवावे, जो चिकनी हों लेकर तिल और जलके साथ उसका दान करना तथा जिनमें चाँदीका संसर्ग हो । उनकी लम्बाई एक-एक चाहिये। संकल्पके समय जल-पात्रमें रखे हुए जलको रत्रिकी और आकार हाथके समान सुन्दर होना उचित बायें हाथकी सहायतासे दायें हाथमें ढाल लेना चाहिये। है। जलपात्र, कांस्यपात्र, प्रोक्षण, समिधा, कुश, श्राद्धकालमें पूर्ण प्रयत्नके साथ अपने मन और तिलपात्र, उत्तम वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन-ये सब इन्द्रियोंको काबूमें रखे और मात्सर्यका त्याग कर दे। वस्तुएँ धीरे-धीरे दक्षिण दिशामें रखे। उस समय जनेऊ [पिण्डदानकी विधि इस प्रकार है-] पिण्ड देनेके दाहिने कंधेपर होना चाहिये। इस प्रकार सब सामान लिये बनायी हुई वेदियोंपर यत्नपूर्वक रेखा बनावे। इसके एकत्रित करके घरके पूर्व गोबरसे लिपी हुई पृथ्वीपर बाद अवनेजन-पात्रमें जल लेकर उसे रेखाङ्कित वेदीपर गोमूत्रसे मण्डल बनावे और अक्षत तथा फूलसहित जल गिरावे। [यह अवनेजन अर्थात् स्थान-शोधनकी क्रिया लेकर तथा जनेऊको क्रमशः बायें एवं दाहिने कंधेपर है।] फिर दक्षिणाभिमुख होकर वेदीपर कुश विछावे छोड़कर ब्राह्मणोंके पैर धोये तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम और एक-एक करके सब पिण्डोको क्रमशः उन कुशोपर करे। तदनन्तर, विधिपूर्वक आचमन कराकर उन्हें रखे। उस समय [पिता-पितामह आदिमेंसे जिस-जिसके बिछाये हुए दर्भयुक्त आसनोंपर बिठावे और उनसे उद्देश्यसे पिण्ड दिया जाता हो, उस-उस] पितरके मन्त्रोच्चारण करावे। सामर्थ्यशाली पुरुष भी देवकार्य नाम-गोत्र आदिका उच्चारण करते हुए संकल्प पढ़ना (वैश्वदेव श्राद्ध) में दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको चाहिये। पिण्डदानके पश्चात् अपने दायें हाथको ही भोजन कराये अथवा दोनों श्राद्धोंमें एक-एक पिण्डाधारभूत कुशोपर पोंछना चाहिये। यह ब्राह्मणको ही जिमाये। विद्वान् पुरुषको श्राद्धमें अधिक लेपभागभोजी पितरोंका भाग है। उस समय ऐसे ही विस्तार नहीं करना चाहिये। पहले विश्वेदेव-सम्बन्धी मन्त्रका जप अर्थात् 'लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु
और फिर पितृ-सम्बन्धी विद्वान् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदिसे इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करना उचित है। इसके बाद विधिवत् पूजा करे तथा उनकी आज्ञा लेकर अग्निमें पुनः प्रत्यवनेजन करे अर्थात् अवनेजनपात्रमें जल लेकर यथाविधि हवन करे। विद्वान् पुरुष गृह्यसूत्रमें बतायी हुई उससे प्रत्येक पिण्डको नहलावे। फिर जलयुक्त पिण्डोंको विधिके अनुसार घृतयुक्त चरुका अग्नि और सोमको नमस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त वेदमन्त्रोंके द्वारा पिण्डोपर तृप्तिके उद्देश्यसे समयपर हवन करे। इस प्रकार पितरोंका आवाहन करे और चन्दन, धूप आदि पूजनदेवताओंकी तृप्ति करके वह श्राद्धकर्ता श्रेष्ठ ब्राहाण सामग्रियोंके द्वारा उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् साक्षात् अग्निका स्वरूप माना जाता है। देवताके आहवनीयादि अग्नियोंके प्रतिनिधिभूत एक-एक उद्देश्यसे किया जानेवाला हवन आदि प्रत्येक कार्य ब्राह्मणको जलके साथ एक-एक दवी प्रदान करे । फिर जनेऊको बायें कंधेपर रखकर ही करना चाहिये। विद्वान् पुरुष पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डोंके ऊपर कुश रखे तत्पश्चात् पितरोंके निमित्त करनेयोग्य पर्युक्षण (सेचन) तथा पितरोंका विसर्जन करे। तदनन्तर, क्रमशः सभी आदि सारा कार्य विज्ञ पुरुषको जनेऊको दायें कंधेपर पिण्डोंमेंसे थोड़ा-थोड़ा अंश निकालकर सबको एकत्र करके-अपसव्य भावसे करना उचित है। हवन तथा करे और ब्राह्मणोंको यलपूर्वक पहले वही भोजन करावे; विश्वेदेवोंको अर्पण करनेसे बचे हुए अन्नको लेकर उसके क्योंकि उन पिण्डोंका अंश ब्राह्मणलोग ही भोजन करते
१. मुट्ठी बंधे हुए हाथकी लम्बाईको रवि कहते है। २. खदिर (खैर) की बनी हुई कलछुल।