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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन
भीष्मजीने कहा- भगवन्! अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! बड़े हर्षकी बात है; मैं तुम्हें आरम्भसे ही पितरोंके वंशका वर्णन सुनाता हूँ, सुनो। स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन तो मूर्तिरहित हैं और चार मूर्तिमान्। ये सब के सब अमिततेजस्वी हैं। इनमें जो मूर्तिरहित पितृगण है, वे वैराज प्रजापतिकी सन्तान हैं; अतः वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनका यजन करते हैं। अब पितरोंकी लोक-सृष्टिका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो। सोमपथ नामसे प्रसिद्ध कुछ लोक हैं, जहाँ कश्यपके पुत्र पितृगण निवास करते हैं। देवतालोग सदा उनका सम्मान किया करते हैं। अग्निष्वात्त नामसे प्रसिद्ध यज्वा पितृगण उन्हीं लोकोंमें निवास करते हैं। स्वर्गमें विभ्राज नामके जो दूसरे तेजस्वी लोक हैं, उनमें बर्हिषद्संज्ञक पितृगण निवास करते हैं। वहाँ मोरोंसे जुते हुए हजारों विमान हैं तथा संकल्पमय वृक्ष भी हैं, जो संकल्पके अनुसार फल प्रदान करनेवाले हैं। जो लोग इस लोकमें अपने पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, वे उन विभ्राज नामके लोकोंमें जाकर समृद्धिशाली भवनोंमें आनन्द भोगते हैं तथा वहाँ मेरे सैकड़ों पुत्र विद्यमान रहते हैं, जो तपस्या और योगबलसे सम्पत्र, महात्मा, महान् सौभाग्यशाली और भक्तोंको अभयदान देनेवाले हैं। मार्तण्डमण्डल नामक लोकमें मरीचिगर्भ नामके पितृगण निवास करते हैं। वे अङ्गिरा मुनिके पुत्र है और लोकमें हविष्मान् नामसे विख्यात हैं; वे राजाओंके पितर हैं और स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाले हैं। तीर्थोंमें श्राद्ध करनेवाले श्रेष्ठ क्षत्रिय उन्हींके लोकमें जाते हैं। कामदुध नामसे प्रसिद्ध जो लोक हैं, वे इच्छानुसार भोगकी प्राप्ति करानेवाले हैं। उनमें सुस्वध नामके पितर निवास करते हैं। लोकमें वे आज्यप नामसे विख्यात है और प्रजापति कर्दमके पुत्र हैं। पुलहके बड़े भाईसे उत्पन्न वैश्यगण उन पितरोंकी पूजा करते हैं। श्राद्ध करनेवाले पुरुष उस लोकमें पहुँचनेपर एक ही साथ हजारों जन्मोंके परिचित
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
माता, भाई, पिता, सास, मित्र, सम्बन्धी तथा बन्धुओंका दर्शन करते हैं। इस प्रकार पितरोंके तीन गण बताये गये। अब चौथे गणका वर्णन करता हूँ। ब्रह्मलोकके ऊपर सुमानस नामके लोक स्थित हैं, जहाँ सोमप नामसे प्रसिद्ध सनातन पितरोंका निवास है। वे सब-के-सब धर्ममय स्वरूप धारण करनेवाले तथा ब्रह्माजीसे भी श्रेष्ठ हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे योगी हैं; अतः ब्रह्मभावको प्राप्त होकर सृष्टि आदि करके सब इस समय मानसरोवरमें स्थित है। इन पितरोंकी कन्या नर्मदा नामकी नदी है, जो अपने जलसे समस्त प्राणियोंको पवित्र करती हुई पश्चिम समुद्रमें जा मिलती है। उन सोमप नामवाले पितरोंसे ही सम्पूर्ण प्रजासृष्टिका विस्तार हुआ है, ऐसा जानकर मनुष्य सदा धर्मभावसे उनका श्राद्ध करते हैं। उन्होंके प्रसादसे योगका विस्तार होता है।
आदि सृष्टिके समय इस प्रकार पितरोंका श्राद्ध प्रचलित हुआ । श्राद्धमें उन सबके लिये चाँदीके पात्र अथवा चाँदीसे युक्त पात्रका उपयोग होना चाहिये। 'स्वधा' शब्दके उच्चारणपूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे किया हुआ श्राद्ध-दान पितरोंको सर्वदा सन्तुष्ट करता है। विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि वे अग्निहोत्री एवं सोमपायी ब्राह्मणोंके द्वारा अग्निमें हवन कराकर पितरोंको तृप्त करें। अभिके अभावमें ब्राह्मणके हाथमें अथवा जलमें या शिवजीके स्थानके समीप पितरोंके निमित्त दान करे; ये ही पितरोंके लिये निर्मल स्थान हैं। पितृकार्यमें दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीतको अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधेपर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा 'स्वधा' के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध - ये सदा पितरोंको तृप्त करते हैं। कुश, उड़द, साठी धानका चावल, गायका दूध, मधु गायका घी, सावाँ, अगहनीका चावल, जौ, तीनाका चावल, मूँग, गन्ना और सफेद फूल – ये सब वस्तुएँ पितरोंको सदा प्रिय हैं।
अब ऐसे पदार्थ बताता हूँ, जो श्राद्धमें सर्वदा वर्जित हैं। मसूर, सन, मटर, राजमाष, कुलथी, कमल,