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सृष्टिखण्ड ]
• पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन .
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बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूषक, भेड़-बकरीका पर्वके दिन जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण कहते दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी-ये हैं। पार्वण-श्राद्धमें जो ब्राह्मण निमन्त्रित करनेयोग्य हैं, सब निषिद्ध हैं। अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको उनका वर्णन करता हूँ श्रवण करो! जो पञ्चाग्निका श्राद्धमें इन वस्तुओंका उपयोग कभी नहीं करना चाहिये। सेवन करनेवाला, स्रातक, त्रिसौपर्ण', वेदके व्याकरण जो भक्तिभावसे पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी आदि छहों अङ्गोंका ज्ञाता, श्रोत्रिय (वेदज्ञ), श्रोत्रियका सन्तुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग पुत्र, वेदके विधिवाक्योंका विशेषज्ञ, सर्वज्ञ (सब प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्यसे भी बढ़कर है; अतः विषयोंका ज्ञाता), वेदका स्वाध्यायी, मन्त्र जपनेवाला, देवताओंको तृप्त करनेसे पहले पितरोंको ही सन्तुष्ट करना ज्ञानवान्, त्रिणाचिकेत', त्रिमधु', अन्य शास्त्रोंमें भी श्रेष्ठ माना गया है। कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो परिनिष्ठित, पुराणोंका विद्वान्, स्वाध्यायशील, जाते हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तोंपर प्रेम रखते ब्राह्मणभक्त, पिताकी सेवा करनेवाला, सूर्यदेवताका है और उन्हें सुख देते हैं। पितर पकि देवता है अर्थात् भक्त, वैष्णव, ब्रह्मवेत्ता, योगशास्त्रका ज्ञाता, शान्त, प्रत्येक पर्वपर पितरोंका पूजन करना उचित है। आत्मज्ञ, अत्यन्त शीलवान् तथा शिवभक्तिपरायण हो, हविष्मानसंज्ञक पितरोंके अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्धके ऐसा ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रण पानेका अधिकारी है। ऐसे देवता माने गये हैं।
ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। भीष्मजीने कहा-ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अब जो लोग श्राद्धमें वर्जनीय हैं, उनका वर्णन सुनो। पुलस्त्यजी। आपके मुँहसे यह सारा विषय सुनकर मेरी पतित, पतितका पुत्र, नपुंसक, चुगलखोर और अत्यन्त इसमें बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः अब मुझे श्राद्धका रोगी-ये सब श्राद्धके समय धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा त्याग देने समय, उसकी विधि तथा श्राद्धका स्वरूप बतलाइये। योग्य हैं। श्राद्धके पहले दिन अथवा श्राद्धके ही दिन श्राद्धमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ? तथा विनयशील ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। निमन्त्रण दिये हुए किनको छोड़ना चाहिये? श्राद्धमें दिया हुआ अन्न ब्राह्मणोंके शरीरमें पितरोंका आवेश हो जाता है। वे पितरोंके पास कैसे पहुंचता है ? किस विधिसे श्राद्ध वायुरूपसे उनके भीतर प्रवेश करते हैं और ब्राह्मणोंके करना उचित है? और वह किस तरह उन पितरोंको तृप्त बैठनेपर स्वयं भी उनके साथ बैठे रहते हैं। करता है?
किसी ऐसे स्थानको, जो दक्षिण दिशाकी ओर पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! अन्न और जलसे नीचा हो, गोबरसे लीपकर वहाँ श्राद्ध आरम्भ करे अथवा दूध एवं फल-मूल आदिसे पितरोंको सन्तुष्ट अथवा गोशालामें या जलके समीप श्राद्ध करे। करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। श्राद्ध तीन आहिताग्नि पुरुष पितरोंके लिये चरु (खीर) बनाये और प्रकारका होता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । पहले यह कहकर कि इससे पितरोंका श्राद्ध करूँगा, वह सब नित्य श्राद्धका वर्णन करता हूँ। उसमें अर्थ्य और दक्षिण दिशामें रख दे। तदनन्तर उसमें घृत और मधु आवाहनकी क्रिया नहीं होती। उसे अदैव समझना आदि मिलाकर अपने सामनेकी ओर तीन निर्वापस्थान चाहिये-उसमें विश्वदेवोंको भाग नहीं दिया जाता। (पिण्डदानकी वेदियाँ) बनाये। उनकी लम्बाई एक बित्ता
१. 'ब्रह्ममेतु माम्' इत्यादि तीन अनुवाकोंका नियमपूर्वक अध्ययन करनेवाला त्रिसौपर्ण कहलाता है।
२. द्वितीय कठके अन्तर्गत 'अयं वाव यः पवते' इत्यादि तीन अनुवाकोको त्रिणाचिकेत कहते है। उसका स्वाध्याय अथवा अनुष्ठान करनेवाला पुरुष भी त्रिणाचिकेत कहलाता है।
३. 'मधु वाता ऋतायते' इत्यादि तीनों ऋचाओंका पाठ और अनुगमन करनेवालेको त्रिमधु कहते है।