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पांचवां बोल-१५
आज जैनधर्म का अनुयायी कोई राजा नही रहा । तुम्ही उसके अनुयायी हो और इसी कारण पोल चल रही है । तुम धर्म का विचार न करो, असत्य बात पकड बैठो या धर्म मे अधिक झझट उत्पन्न करो, तो इसके लिए तुमसे अधिक क्या कहा जाये ? तुमसे ज्यादा कुछ नही बन पडता,. तो कम से कम इतना तो अवश्य करो कि ससारव्यवहार के साथ धर्म को एक मेक न करो । अगर इतना भी करोगे तो आज- सघ के जो टुकड़े-टुकड़े हो रहे है, वह न होंगे । धर्म की रक्षा करने से सघ मे एकता और शान्ति की स्थापनाअवश्य होगी।
कहा जा सकता है कि आप यहा अधिक कहाँ रहने वाले है ? ऐसा कहने वाले को यही उत्तर दिया जा सकता है कि अगर मैं शरीर से नही तो धर्म से तो रहूगा ही। तुम्हारे धर्मभाव के कारण ही मैं यहा आया हूं और इसीलिए तुम मुझे लाये हो । तुम जिस धर्म का पालन करते, हो वह मुझमें न होता अथवा जिस धर्म का पालन मैं करता हूं वह तुममे न होता तो तुम मुझे यहा लाते ही क्यो और, मैं भी किसलिए आता ? यह धर्म या यश का शरीर तो; रहता ही है। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं कि धर्म के नाम: पर रगडे-झगड़े मत करो। विचार करो कि हम गजसुकुमार मुनि के शिष्य हैं । उन्होंने तो मस्तक पर धधकते अगार, रखने वाले को भी मित्र समझा था तो क्या हम अपने सहधर्मी को भी मित्र नही समझ सकते ?
भावपूर्वक की जाने वाली आलोचना ही सच्ची आलोचना है। कर्म के उदय से अपराध तो हो जाता है, मगर उस अपराध की निन्दा करनी चाहिए और सोचना चाहिए।