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• १४-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
सन्निकट आ रहा है। इस पवित्र पर्व के दिन तो ऐसी भावआलोचना करना ही चाहिए। प्रतिक्रमण करते समय 'मित्ती 'मे सव्यभूएसु' अर्थात् समस्त प्राणियों के प्रति मेरा मैत्रीभाव
है, इस प्रकार का सूत्रपाठ बोलते हो, मगर यह भी देखना 'चाहिए कि यह पाठ जीवन में कितना उतरा है ? अगर यह मैत्रीभावना केवल जिह्वा से बोल दी और जीवनव्यवहार मे अमल में नही आई तो यही कहना होगा कि तुम 'अभी तक भाव-पालोचना तक नही पहुँच सके हो। 'मित्तो 'मे सव्वभूएसु' इस सूत्रपाठ को मानने वाला व्यक्ति किसी को
अपना शत्रु तो मान ही नही सकता और न किसी के साथ 'क्लेश ही कर सकता है। प्राणीमात्र के प्रति उसकी तो मैत्रोभावना ही होगी।
समस्त प्राणियो को मित्र के समान समझना चाहिए, यह कथन सुनकर कदाचित् कोई प्रश्न करे कि सवको मित्र मानने का अर्थ क्या यह है कि जिनसे हमे रुपया लेना है, उन्हे यो ही छोड़ दिया जाये ? ऋण वसूल न किया जाये? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि मित्र के साथ क्या लेन-देन नही किया जाता? अपना लेना वसूल करने की मनाई नही 'है, मगर अन्याय करने का निपेध किया गया है । हृदय में किसी के प्रति वैरभाव नहीं रखना चाहिए। हम साधुओ को तो सबके प्रति मैत्रीभाव रखना ही चाहिए, चाहे कोई हमारे प्राण ही क्यो न ले ले ! गजमुकुमार मुनि के मस्तक पर धधकते अगार रखे गये थे, फिर भी सोमल ब्राह्मण को उन्होने अपना, मित्र ही माना था। साधुओं को एक क्षण ' के लिए भी नही भूलना चाहिए कि वे किसके शिष्य है और - हमे हृदय मे किस प्रकार का मैत्रीभाव धारण करना चाहिए।