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जगे तु पढमो सुज्जो, आदिच्चो आदि णाहगो।
दित्तो तित्थयराया सो, मेरुव्व सम्मदिं णमो॥5॥ जगत में प्रथम सूर्य आदिनाथ आदित्य हैं, वे दीप्त तीर्थराज हैं और वे मेरु की तरह हैं, उन प्रथम सन्मति रूप आदि प्रभु को नमन है।
सम्मदि सिहरारुढे, आदीसो दिग-भस्सरो।
मरीचि-दित्त-संजुत्तो, हेमहिए तवे धरे॥6॥ जिन्होंने हेमाद्रि (हिमस्थल) पर तप किया ये सन्मति के शिखर पर आरुढ़ आदीश, दिग भास्कर एवं दीप्त मरीचियों से युक्त हैं उन्हें नमन है।
अउज्झा सिरि णाहिस्स, मरुदेवी महाधरी
चेत्त किण्ह-णवे हिण्णे, वसहो वसहो हवे॥7॥ अयोध्या के नाभिराय की महाधरी (महाराज्ञी) मरुदेवी से चैत्र कृष्णा नवमी दिन उत्तम हुआ वृषभ जन्म से वृषभ चिह्न से।
बंह-णाणादु बंहा सो, महेसो महदेवदो।
विज्जमणुण्ण-विज्जत्थी, सिप्पी कम्मविसारदो॥8॥ वे ब्रह्म ज्ञान से ब्रह्म थे उत्तम देह से महेश, विद्याओं से विद्यार्थी और शिल्पि कर्म विशारद भी थे।
सयंभू सव्व भूणाणी, विभु-पहु महेसरो।
वसह-चिण्ह-भूसण्हू, परमप्पा पराधणी॥१॥ वे स्वयंभू, सर्वभूज्ञानी, विभु, प्रभु, महेश्वर, वृषभचिह्न से भूषित परमात्मा एवं पराधनी थे।
10 विजयादो अजेयो य, जिदसत्तु-महाजयी।
तिल्लोगि अज्जयो लालो, सागेदस्स सुसोहगो॥10॥ विजया से अति अजेय अजित हुए जितशत्रु भी अजित से महाजयी हुए। ऐसे थे साकेत के शोभक त्रिलोकी नाथ अजित।
24 :: सम्मदि सम्भवो