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में महाभारत जैसे मंसार प्रसिद्ध युद्ध और व्यास, वालमीक, तुलसी, जिनसेनाचार्य जैसे इतिहासकार हुये हैं। पर, भारत के युद्धों और विदेशों के युद्धों में पृथ्वी श्राफाश का अन्तर रही है। राज्य लिप्सायलिये मगही मानाओं को पत्रहीना कर देना, बालफ यालिमानों को अनाथ बना देना; मती नारियों को भरी जवानी में वैधव्य का दुःख देना, देशभर में घोर भय फैला देना, भारतवासियों ने पाप समझा। हाँ श्रात्म-रक्षा के लिये, सतीत्व रक्षा के लिये और धर्मबजा के लिये युद्ध अवश्य किये हैं। वह भी उस समय जबफि युद्ध करने के सिवाय और कोई दूसरा उपाय ही नहीं था। भारतवानियों ने युद्ध शान्ति-भंग के लिये नहीं, अपितु शान्तिरता के लिये किये हैं। जो जानि मुम्न मै शान्ति की गोद में निद्रा लेती रही हो, उस भारतवासियों ने कभी छेड़ा होनिधिन्न हदयों में प्रातक पहुँचाया होगमा उदाहरण एक भी नहीं मिलना । इसी प्रकार भारतीय उक्त इतिहासकारों और विदेशीय इतिहासकारों के दृष्टिकोण में भी पर्याप्त अन्तर रहा है। भारतीय मन्थफारों ने कभी अपने साहित्य से किसी देश व जाति को पराधीन एवं प्रतिभा और साहसहीन बनाने की दुरच्छा नहीं की, अपितु जो भी लिग्वा वह प्राणीमात्र की कल्याण-कामना को लंकर लिया । यही कारण है कि आज अनेक भारतीयपंथ संसार की प्रत्येक भाषा में अनवादित होकर पूर्वकालीन भारतीयों की प्रखर प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं।
जैनधर्म पूर्ण रूपेण श्रात्मा का धर्म है, इसीलिये जैनधर्मानु