Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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३. मायाप्रत्ययाक्रिया - 'अण्णयरस्स वि अप्पमत्तसंजयस्स'- यहाँ पर अप्रमत्तसंयतों में मात्र 'सराग अप्रमत्तसंयतों' का ही ग्रहण हुआ समझना चाहिए। वीतराग संयत को यह क्रिया नहीं लगती है। माया प्रत्यया क्रिया कषाय से सम्बन्धित होने के कारण दसवें गुणस्थान तक लगती है। यहाँ "माया" शब्द से चारों कषायों का ग्रहण किया गया है।
४. अप्रत्याख्यान क्रिया - 'अण्णयरस्स वि अपच्चक्खाणीस्स' पहले से चौथे गुणस्थान तक के सभी जीवों को यह क्रिया लगती है। अप्रत्याख्यान क्रिया वाले को प्रत्याख्यान के भाव भी नहीं आते हैं और अनुपरतकायिकी क्रिया वाला विरति को प्राप्त नहीं कर सकता है। ऐसा अर्थ टीका से निकलता है।
५. मिथ्यादर्शन प्रत्ययाक्रिया - 'अण्णयरस्स वि मिच्छाद्दिहिस्स' - मिथ्यादर्शन की क्रिया अपेक्षा से पहले, दूसरे तीसरे गुणस्थान तक समझना। दूसरे गुणस्थान में भी मिथ्यात्वाभिमुख होने से एवं हीयमान परिणाम होने से सास्वादन समकित होने पर भी मिथ्यात्व की क्रिया लगती है। विकलेन्द्रियों में पांचों क्रियाओं की नियमा बताई है।
जीव में क्रियाओं का सहभाव णेरइयाणं भंते! कइ किरियाओ पण्णत्ताओ? .
गोयमा! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ। तंजहा - आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के कितनी क्रियाएं कही गई हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों के पांच क्रियाएँ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं - आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया।
एवं जाव वेभाणियाणं। भावार्थ- इसी प्रकार नैरयिकों के समान वैमानिकों तक प्रत्येक में पांच क्रियाएं समझनी चाहिए।
जस्स णं भंते! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स परिग्गहिया किरिया कज्जइ, जस्स परिग्गहिया किरिया कज्जइ तस्स आरंभिया क्रिरिया कज्जइ?
गोयमा! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कजइ तस्स परिग्गहिया किरिया सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ, जस्स पुण परिग्गहिया किरिया कज्जइ तस्स आरंभिया किरिया णियमा कज्जइ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जिस जीव के आरम्भिकी क्रिया होती है क्या उसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है ? तथा जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है, क्या उसके आरम्भिकी क्रिया होती है?
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