Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - लोमाहार द्वार
१८१
चउरिदिया जाव पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च, एवं पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा जस्स जइ इंदियाई तइंदियाई सरीराइं आहारेंति, सेसा जहा णेरड्या, जाव वेमाणिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिकों के विषय में पृच्छा?
उत्तर - हे गौतम! पूर्व भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा इसी प्रकार समझना चाहिए। प्रत्युत्पन्न भाव की अपेक्षा वे नियमा एकेन्द्रिय शरीरों का आहार करते हैं। बेइन्द्रिय जीवों के विषय में पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा इसी प्रकार समझना चाहिए। प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा वे नियम से बेइन्द्रिय शरीरों का आहार करते हैं। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय तक पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा पूर्ववत् समझना चाहिए, वर्तमान भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा नियमा जिसके जितनी इन्द्रियाँ हैं वे उतनी इन्द्रियों वाले शरीरों का आहार करते हैं। शेष जीवों का यावत् वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए।
१०. लोमाहारद्वार णेरइया णं भंते! किं लोमाहारा पक्खेवाहारा?
गोयमा! लोमाहारा, णो पक्खेवाहारा, एवं एगिंदिया सव्वे देवा य भाणियप्वा जाव वेमाणिया। बेइंदिया जाव मणूसा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि ॥६४८॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव लोमाहारी हैं प्रक्षेपाहारी नहीं हैं।
इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों, सभी देवों यावत् वैमानिकों तक के विषय में कहना चाहिए। बेइन्द्रियों से लेकर यावत् मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं प्रक्षेपाहारी भी हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीवों के लोमाहारी और प्रक्षेपाहारी होने की प्ररूपणा की गयी है। शरीर पर्याप्ति होने के बाद रोमों (त्वचा) के द्वारा होने वाला आहार लोमाहार कहलाता है और जो जीव लोमाहार करने वाले हैं वे लोमाहारी कहलाते हैं। कवल द्वारा मुख से शरीर में आहार डालना प्रक्षेपाहार कहलाता है जो जीव प्रक्षेपाहार करने वाले हैं वे प्रक्षेपाहारी कहलाते हैं। नैरयिक चारों प्रकार के देव और एकेन्द्रिय जीव लोमाहारी हैं प्रक्षेपाहारी नहीं, क्योंकि नैरयिकों और देवों में वैक्रिय शरीर होता है इसलिए तथाविध स्वभाव से ही वे लोमाहारी ही होते हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं। लोमाहार भी पर्याप्त जीवों को ही होता है अपर्याप्तों को नहीं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता अतः उनमें कवलाहार का अभाव है वे लोमाहारी ही होते हैं। तीन विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चरिन्द्रिय) तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य लोमाहारी भी होते हैं और प्रक्षेपाहारी भी। क्योंकि उनमें दोनों प्रकार का आहार संभव है।
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