Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
चौतीसवां परिचारणा पद - सम्यक्त्व अभिगम द्वार
-
के हैं - १. पर्याप्तक और २. अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं वे जानते नहीं देखते नहीं क्योंकि पर्याप्तियाँ पूरी नहीं होने से अवधि आदि का उपयोग नहीं होता। जो पर्याप्तक हैं वे दो प्रकार के हैं १. उपयोग सहित और २. उपयोग रहित । उनमें जो उपयोग सहित हैं वे जानते हैं क्योंकि उपयोग से यथाशक्ति ज्ञान से अपने विषय को जानने की अवश्य प्रवृत्ति होती है और आँख से देखते हैं क्योंकि उनका इन्द्रिय सामर्थ्य अधिक होता है। जो उपयोग रहित हैं वे जानते नहीं देखते नहीं क्योंकि उपयोग नहीं है । टीकाकार 'अमायी सम्यग्दृष्टि' में मात्र अनुत्तर देवों को ही लेते हैं परन्तु धारणा से प्रथमादि देवलोक के एक सागर झाझेरी स्थिति से ऊपर वाले 'अमायी सम्यग्दृष्टि' जान सकते हैं।
-
४. अध्यवसाय द्वार णेरइयाणं भंते! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! असंखिज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता । ते णं भंते! किं पसत्था अपसत्था ?
गोयमा! पसत्था व़ि अपसत्था वि एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ - अज्झवसाणा अध्यवसान (अध्यवसाय), पसत्था अप्रशस्त ।
-
भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के कितने अध्यवसाय कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों के असंख्यात अध्यवसाय कहे गये हैं ।
Jain Education International
२५५
प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों के अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिये ।
विवेचन - नैरयिकों के असंख्यात अध्यवसाय होते हैं क्योंकि वे प्रतिसमय भिन्न-भिन्न अध्यवसाय वाले होते हैं और ये अध्यवसाय प्रशस्त (शुभ) भी होते हैं और अप्रशस्त (अशुभ) भी होते हैं इसी प्रकार चौबीस दण्डकों के विषय में समझना चाहिये ।
५. सम्यक्त्व अभिगम द्वार
णेरड्या णं भंते! किं सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी, सम्मामिच्छत्ताभिगमी ? गोयमा ! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्ताभिगमी वि, एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिंदिय विगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी णो सम्मामिच्छत्ताभिगमी ॥ ६७६ ॥
For Personal & Private Use Only
प्रशस्त, अपसत्था
www.jainelibrary.org