Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 354
________________ छत्तीसवां समुद्घात पद - सिद्धों का स्वरूप ३४१ r eeeeeeeeeks crick e terackscreenterestarteseetaarketaketecteristeetekarketstatekaceecta प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि वे सिद्ध वहां अशरीर, जीवघन, दर्शनज्ञानोपयुक्त, निष्ठितार्थ (कृतार्थ), नीरज, निष्कम्प, वितिमिर, शुद्ध तथा शाश्वत अनागत काल तक रहते हैं? उत्तर - हे गौतम! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही सिद्धों के भी कर्म बीजों के जल जाने पर पुन: जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध अशरीरी, सघन, आत्म प्रदेश युक्त, दर्शन ज्ञानोपयुक्त, कृतार्थ, नीरज निष्कंप, वितिमिर, विशुद्ध तथा शाश्वत भविष्यकाल तक रहते हैं। गाथा का अर्थ - सिद्ध भगवान् सभी दुःखों को पार हो चुके हैं। वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं. सुख को प्राप्त अत्यंत सुखी वे सिद्ध शाश्वत और बाधा रहित हो कर रहते हैं। विवेचन - केवली भगवान् मन, वचन और काया के योगों का निरोध करके अयोगी होते हैं। अयोगी अवस्था को प्राप्त होकर पांच ह्रस्व अक्षर उच्चारण करने में जितने समय लगते हैं, उतने असंख्यात समय प्रमाण अंतर्मुहूर्त काल की शैलेशी अवस्था को प्राप्त करते हैं एवं वेदनीय आदि चार अघाती कर्मों को भोगने हेतु पूर्व रचित गुण श्रेणी को अंगीकार करते हैं। शैलेशी अवस्था में असंख्यातगुण श्रेणियों से प्राप्त तीनों कर्मों के असंख्यात कर्म स्कन्धों की प्रदेश और विपाक से निर्जरा कर सिद्धत्व के प्रथम समय में चारों कर्माशों को एक साथ क्षय करते हैं और औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर का सर्वथा सदा के लिए त्याग करते हैं। यहाँ जितने आकाश प्रदेशों को अवगाह कर रहे हुए हैं उतने ही आकाश प्रदेशों को ऊपर ऋजुश्रेणी से अवगाहते हुए अस्पृश्यमान गति से (दूसरे समय और प्रदेश का स्पर्श न करते हुए अर्थात् नहीं रुकते हुए) एक समय की अविग्रह गति से ऊपर सिद्धि गति में जाकर साकार उपयोग-केवलज्ञान से उपयुक्त सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं। - जैसे अग्नि से जले हुए बीजों से पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं होते उसी प्रकार कर्म बीज के जल जाने से सिद्ध पुनः जन्म ग्रहण नहीं करते। सिद्धि गति में सिद्ध भगवान् सदा के लिए अशरीरी, जीवधन (घनीभूत जीव प्रदेश वाले) दर्शन ज्ञान से उपयुक्तं, कृतकृत्य, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर (कर्म रूप अंधकार से रहित) और विशुद्ध बने रहते हैं। सभी दुःखों से निस्तीर्ण, जन्म जरा और मरण के बन्धन से मुक्त, ये सिद्ध शाश्वत अव्याबाध सुख से सदैव सुखी रहते हैं। ॥प्रज्ञापना भगवती सूत्र का छत्तीसवां समुद्घात पद समाप्त॥ ॥ प्रज्ञापना सूत्र भाग-४ सम्पूर्ण ॥ • प्रज्ञापना सूत्र समाप्त • Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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