Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चौतीसवां परिचारणा पद - अल्प बहुत्व द्वार
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गोयमा! सव्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संखेजगुणा, सहपरियारगा असंखेजगुणा, रूवपरियारगा असंखेजगुणा, फासपरियारगा असंखेजगुणा, कायपरियारगा असंखेजगुणा॥६८१॥
॥पण्णवणाए भगवईए चउत्तीसइमं परियारणा पयं समत्तं॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन काय परिचारक यावत् मन परिचारक और अपरिचारक देवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है?
उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े अपरिचारक देव हैं, उनसे मन परिचारक संख्यात गुणा, उनसे शब्द परिचारक असंख्यातगुणा, उनसे रूप परिचारक असंख्यातगुणा, उनसे स्पर्श परिचारक असंख्यात 'गुणा और उनसे भी कायपरिचारक देव असंख्यात गुणा हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में परिचारक और अपरिचारक देवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े अपरिचारक-विषय सेवन रहित देव हैं क्योंकि ग्रैवेयक और अनुत्तरौपपातिक देव दोनों मिल कर क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण है। उनसे मन:परिचारक देव संख्यातगुणा हैं क्योंकि मन:परिचारणा वाले आनत आदि चार कल्पों में रहने वाले देव हैं और वहाँ रहने वाले देव पूर्व देवों की अपेक्षा संख्यात गुणा क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण है। उनसे. शब्द परिचारक देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे महाशुक्र और सहस्रार कल्पवासी हैं और वे घन रूप किये हुए लोक की एक प्रदेश की श्रेणी के असंख्यातवें भाग जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने हैं। उनसे रूप परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प में रहने वाले देव हैं और वे पूर्व देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणी श्रेणी के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण हैं। उनसे भी स्पर्श परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में रहने वाले हैं और वहाँ रहे देव ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणी श्रेणि के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रमाण कहे गये हैं। उनसे भी कायपरिचारक देव असंख्यातगुणा हैं क्योंकि भवनपति से लगाकर दूसरे ईशान देवलोक तक के सभी देव कायपरिचारक हैं और वे सभी मिल कर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्य श्रेणियों के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण हैं।
॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र का चौतीसवां परिचारणा पद समाप्त॥
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